________________
४६
पञ्चास्तिकाय परिशीलन एकपर्यायमयपना कहा गया है, वह सब द्रव्य की सत्ता से अभिन्न अनन्य देखने के लिए कहा है; इसलिए इनमें कोई ऐसी सत्ताविशेष शेष नहीं रहती, जो कि सत्ता को वस्तुतः द्रव्य से पृथक् स्थापित करे।"
जयसेनाचार्य की टीका में भी अमृतचन्द्राचार्य की भांति ही द्रवति गच्छति का एक अर्थ तो 'द्रवित होता है, प्राप्त होता है' ऐसा ही किया है; परन्तु दूसरा अर्थ ऐसा भी किया है कि 'द्रवति' अर्थात् स्वभाव पर्यायों को द्रवित होता है और गच्छति अर्थात् विभावपर्यायों को प्राप्त होता है। यद्यपि इस कथन से मूल अर्थ में कोई सैद्धान्तिक फर्क नहीं पड़ता; परन्तु उसी सामान्य कथन का स्पष्टीकरण किया है। यहाँ कवि हीरानन्दजी कहते हैं ह्न
(दोहा) जो परजायसरूप धरि, नानारूपी होइ। द्रव्य नाम ताकौ कहैं, सत्ता है पुनि सोइ।।४७।। सिवगामी जे जीव हैं, काल लबधिकौं पाइ।
सत्ता द्रव्य स्वरूपकौं, लखें जथावत भाइ।।७६।। जो वस्तु नाना रूपों में पर्यायरूप से परिणमन करती है, उसे द्रव्य कहते हैं उसी को सत्ता कहते हैं तथा जो जीव मुक्तिगामी हैं, वे काललब्धि को प्राप्त कर सत्ता स्वरूप को यथार्थ देखते हैं।
इस गाथा के स्पष्टीकरण में गुरुदेव श्री कानजीस्वामी द्रव्य के व्युत्पत्तिपरक अर्थ की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए पर्याय की स्वतंत्रता बताकर पाठकों को स्वरूपसन्मुख होने की प्रेरणा देते हैं। वे कहते हैं कि ह्र
पर्याय किसी निमित्त के कारण नहीं होती; किन्तु द्रव्य स्वयं ही अपनी पर्यायरूप द्रवित होता है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की पर्याय को कौन द्रवित करता है? द्रव्य स्वयं ही उन पर्यायों रूप द्रवित होता है। अत: सम्यग्दर्शन प्रगट करनेवालों को मात्र द्रव्य सम्मुख देखना ही रहा; द्रव्य और पर्याय में कुछ करना-धरना तो है ही नहीं।
निगोद का जीवद्रव्य अपनी तत्समय की योग्यता से स्वयं ही अपनी विभाव पर्यायों को प्राप्त होता है। सिद्ध की पर्यायरूप भी उनका
द्रव्य का स्वरूप (गाथा १ से २६) द्रव्य स्वयं परिणमित होता है, किसी निमित्त के कारण वे पर्यायें द्रवित नहीं होतीं। स्वभावपर्यायरूप परिणमे या विभावपर्यायरूप परिणमे, उसरूप द्रव्य ही परिणमित होता है।
द्रव्य की सत्ता स्व से अस्तिरूप और पर से नास्तिरूप है। सामान्यरूप से सब सत् होने पर भी प्रत्येक की विशेषसत्ता भिन्न-भिन्न है। सभी द्रव्य सत् होने पर भी कोई परमानन्दमय है, कोई दुःखी है, कोई जड़ है, कोई चेतन है, कोई अल्पज्ञ है तो कोई सर्वज्ञ है ह्र इसप्रकार प्रत्येक की अवान्तर सत्ता भिन्न-भिन्न है; परन्तु ये सब महासत्ता में समा जाते हैं। सत्ता का यथार्थ स्वरूप श्रद्धापूर्वक जाननेवाले को सम्यग्ज्ञान होकर केवलज्ञान हुए बिना नहीं रहता।" ___ उपर्युक्त गाथा में तो मात्र द्रव्य का स्वरूप ही समझाया है, परन्तु टीका में एवं स्वामीजी के प्रवचन में सहभावी स्वभावगुण पर्यायों एवं क्रमभावी स्वभाव-विभाव पर्यायों की चर्चा करके सत्ता का यथार्थ स्वरूप जानने वालों को शीघ्र मुक्ति की प्राप्ति होती है ह्र ऐसा भाव दर्शाया है।
तात्पर्य यह है कि जिसने ऐसा निर्णय किया कि ह्न 'अपने में जो भी किसी के प्रति राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं, अपने में सुख-दुख की पर्याय उत्पन्न होती है, वह अपनी पर्यायगत योग्यता के कारण हुई; अनुकूलप्रतिकूल परद्रव्य के कारण नहीं हुई।' ह्न ऐसी श्रद्धावाला मात्र ज्ञाता रह जाता है; उसे पर के प्रति राग-द्वेष नहीं रहते। अस्थिरता का जो अल्प राग-द्वेष होता है, वह अनन्त संसार का कारण नहीं बनता।
यद्यपि यहाँ महासत्ता-अवान्तरसत्ता की व्याख्या करके ज्ञान प्रधानता की बात ही की है। परन्तु वस्तुस्वरूप की यथार्थ श्रद्धा एवं सम्यग्ज्ञान से आंशिक चारित्र भी आ ही जाता है। गुरुदेवश्री ने श्रद्धा और चारित्र की चर्चा करके अध्यात्म की गहराइयों में पहुँचाने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया है। वे कहते हैं कि चारित्र की पूर्णता में भले ही थोड़ी देर हो, पर अनन्त संसार नहीं रहता। वे अल्पकाल में ही मुक्त हो जाते हैं।
(32)
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १०४, दिनांक ३-२-५२, पृष्ठ ८६४