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पञ्चास्तिकाय परिशीलन और एक पर्यायमय भी है। (७) अनन्त पर्यायमय भी है और (८) एक पर्यामय भी हैं। अब कवि हीरानन्दजी कहते हैं ह्र
(अडिल्ल) सरव पदारथ विषै सरूप अनेक है। उपजै विनसै अचल महासत एक है ।। एकरूप प्रतिपच्छ सु एक सुपच्छ हैं। परजै विविध प्रकार सु सत्ता लच्छ है ।।६२ ।।
(सवैया इकतीसा) । अपनै चतुष्टयसौं सबै वस्तु पुष्ट लसै,
उपजै विनसि रहै सत्ता तामैं सार है। जैसैं हेम अस्ति मुद्रा कुंडल कटक विषै,
तैसैं वस्तु वर्तनामैं सत्ता अनिवार है।। सत्तामैं अनंत परजायकौ सरूप लसै,
सत्ता एकरूप सत्ता नाना परकार है। सत्ता प्रतिपच्छ गहै सत्ता सबै रूप वहै,
ऐसी सुद्ध सत्ताभूमि द्रव्यको विचार ।।६२।। सभी वस्तुयें अपने-अपने चतुष्टय से स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल एवं स्वभाव से रहते हुए अपने उत्पाद-व्यय-ध्रुव स्वभाव में वर्तते हैं। जैसे स्वर्ण-स्वर्णपने रहते हुए भी कुण्डल आदि के रूप में परिणमन करता है; वैसे ही सभी वस्तुयें वर्तना कहते हुए स्थिर रहती हैं।
पदार्थों के अस्तित्व का नाम सत्ता है। ये सत्तायें दो प्रकार की हैं - १. महासत्ता और २. आवान्तर सत्ता। लोक से सभी पदार्थों का एक नाम महासत्ता है। सभी पदार्थ अपने-अपने स्वरूप से एक अस्तित्व में हैं तथा आवान्तर सत्ता अर्थात् सभी पदार्थ अपने-अपने स्वरूप अस्तित्व में हैं।
पंचास्तिकाय : उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य (गाथा १ से २६)
गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि -
"पदार्थ के अस्तित्व का नाम ही सत्ता है और वह महासत्तारूप से लोक के सभी पदार्थों के अस्तित्व रूप से है; परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि सभी स्वरूप मिलकर एक हैं। महासत्ता अर्थात् सब अपने-अपने स्वरूप अस्तित्व में हैं। सब हैं अर्थात् निगोदिया भी हैं और सिद्ध भी हैं,
चेतन भी हैं और जड़ भी हैं। सब अपने-अपने स्व-चतुष्टय से पूर्णतया स्वतंत्र अस्तित्व में हैं हू ऐसा ज्ञान होते ही आत्मा अकेला ज्ञाता रह जाता है। सब अपने-अपने अस्तित्व में हैं ह ऐसा जानने से स्वत: वीतरागभाव आता है।
प्रतिपक्षसहित का खुलासा करते हुए कहा है कि ह्र महासत्तारूप से महासत्ता सत् है; परन्तु अवान्तरसत्तारूप से महासत्ता नहीं है, क्योंकि महासत्ता में भेद नहीं पड़ते । महासत्ता प्रतिपक्ष सहित है।
जैसे कि ह्न १. महासत्ता एक है, अवान्तरसत्तायें अनेक हैं। २. महासत्ता सामान्य अस्तित्व रूप से समस्त पदार्थों में व्यापक है, अवान्तर सत्ता एक पदार्थ में व्यापक है। ३. महासत्ता अनेक स्वरूप है, अवान्तरसत्ता एक स्वरूप है। ४. लोकालोक यदि महासत्ता है तो एकएक द्रव्य अवान्तरसत्ता है। वस्तुत: छहों द्रव्यों के संग्रह का नाम ही महासत्ता है। ५. यदि एक द्रव्य को महासत्ता कहें तो उसके अन्तर्गत भेद अवान्तरसत्ता हैं।
महासत्ता का अर्थ यह नहीं कि सभी पदार्थों के बीच महासत्ता का अलग डोरा पिरोया हुआ है अथवा सभी पदार्थों का वह एक अधिष्ठान है। यहाँ महासत्ता का अर्थ तो इतना ही है कि सभी पदार्थों में अस्तित्व है। सभी पदार्थों के सामान्य अस्तित्व को एकसाथ कहने का नाम ही महासत्ता है। पहले 'सब हैं' ऐसी महासत्ता स्थापित करके फिर उसमें अवान्तरसत्तारूप विशेष भेद पड़ते हैं कि ये जीव हैं, ये अजीव हैं।
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