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________________ ५०२ पञ्चास्तिकाय परिशीलन आचार्य कहते हैं कि विस्तार से बस हो । जयवन्तवर्ते वह वीतरागता जो कि साक्षात् मोक्षमार्ग का सार होने से शास्त्र तात्पर्यभूत हैं। तात्पर्य दो प्रकार का होता है ह्र १. सूत्र तात्पर्य और २. शास्त्र तात्पर्य । सूत्र तात्पर्य तो प्रत्येक गाथा में प्रतिपादित किया गया है और शास्त्र तात्पर्य में सम्पूर्ण ग्रन्थ का तात्पर्य क्या है? यह बताया जाता है। सर्व पुरुषार्थों में सारभूत मोक्षपुरुषार्थ ऐसे मोक्षतत्त्व अर्थात् मोक्षपुरुषार्थ का प्रतिपादन करने के लिए, जिसमें पंचास्तिकाय और षद्रव्य के स्वरूप के प्रतिपादन द्वारा समस्त वस्तुस्वरूप दर्शाया गया है तथा नवपदार्थों के विस्तृत कथन द्वारा जिसमें बंध-मोक्ष के स्वामी तथा बन्ध-मोक्ष के आयतन (स्थान) और बंध-मोक्ष के विकल (भेद) प्रगट किये गये हैं। निश्चय-व्यवहाररूप मोक्षमार्ग का जिसमें सम्यनिरूपण किया गया है तथा साक्षात् मोक्ष के कारणभूत परमवीतरागपने में जिसका समस्त हृदय स्थित है, वह शास्त्र तात्पर्य है। कवि हीरानन्दजी इसी भाव को काव्य में कहते हैं ह्र (दोहा ) तातै निवृत्ति काम कै, सर्व राग परिहार । वीतरागता लहि भविक, उतरै भवनिधि पार।।२५४ ।। (सवैया इकतीसा ) जैसे एक चन्दन के वृक्ष विष आगि लगै, चन्दन को जारे जो पै चन्दन की सीत है। तैसैं धर्मानुराग देवलोक सुख देय, सो भी सुग्यानी विषै अंतदाह गीत है।। ऐसें ज्ञानी जानत है मोखरूप मानत है, सवै राग त्याग करै राग सौं अतीत है। दुःख रासि सुखाभास भव का समुद्र तर, सुद्धज्ञान सागर मैं सदाकाल नीत है।।२५५ ।। अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका (गाथा १५४ से १७३) ५०३ कवि हीरानन्दजी ने प्रस्तुत काव्यों में कहा है कि - इसलिए जिसे भव्य जीवों ने काम से निवृत्त होकर तथा सर्व राग का परिहार करके वीतरागता प्राप्त कर ली, वे शीघ्र ही संसार सागर पार होंगे। ____ आगे चन्दन वृक्ष का उदाहरण देकर कहते हैं कि भले चन्दन के वृक्ष में आग लग जाये तो भी चन्दन शीतल स्वभाव नहीं छोड़ता। ऐसे ज्ञानी अपने मोक्ष रूप को जानते हैं, सब राग त्याग करके वीतराग होकर भवसागर से तिरते हैं तथा शुद्ध ज्ञानसागर में सदैव डुबकी लगाकर सुखी रहते हैं। इसप्रकार प्रस्तुत परिशीलन में आचार्यश्री कुन्दकुन्ददेव की मूल गाथाओं को, आचार्यश्री अमृतदेव की समय व्याख्या टीका हिन्दी अर्थ को कवि हीरानन्दजी के हिन्दी काव्यों को तथा मैंने अपने मूल गाथाओं के पद्यानुवाद को यथा स्थान देकर उनके अर्थों को सरलतम भाषा में देने का प्रयास किया है। ___ कवि हीरानन्दजी ने भी प्रत्येक गाथा पर दोहा और सवैया इकतीसा छन्दों के माध्यम से गाथाओं में टीका का भावग्रहण करके जो युग के अनुरूप पंचास्तिकाय संग्रह की पद्यों में रचना कर तत्कालीन पाठकों को तो लाभान्वित किया ही है, आज भी उक्त सभी की उपयोगिता असंदिग्ध है। सामान्यजन जो उनकी प्राकृत संस्कृत व प्राचीन ग्रामीण हिन्दी भाषा से अनभिज्ञ हैं, उन्हें किंचित् कठिनाई हो सकती है; उसके लिए स्थानस्थान पर मैंने प्रायः सभी छन्दों के सामान्य अर्थ लिखने का प्रयास किया है, आशा है, उनसे पाठकों को स्वाध्याय में सरलता हो जायेगी तथा मूल गाथा का अर्थ, समय व्याख्या का अर्थ समझ में आ जाने पर हीरानन्दजी की भाषा भी समझ में आ ही जायेगी। (260)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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