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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन (सवैया इकतीसा) निकट संसार आवै जीव मोख-सुख धावै, संयम तपस्या भार भारी भारवाही है। परम वैराग्य धारै आप प्रभुता संभारे, आप” उतरिकै पै पररूप गाही है।। ताकै पंच गुरु प्रीति पर समै रीति सारी, न्याय करि सकै नाहीं प्रीति निरवाही है। विद्यमान मोख नाहीं पर की प्रतीत माहिं, परम्परा मोख पावै जिनने कहा ही है।।२४९ ।। (दोहा) सूच्छिम परसमयी पुरुष, मुकत न है ततकाल । सुरग आदि सुख भुगत करि, क्रमकरि सिवसुख लाभ ।।२५० ।। जो नवधा भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र देव का नमन करते हैं तथा शास्त्र स्वाध्याय में रुचिवंत हैं एवं संयम-तप एवं व्रतों का पालन करते हैं, वे शुभभाव वाले हैं, इस कारण वीतरागभाव से अर्थात् शुद्धोपयोग से प्राप्त होनेवाली मुक्ति उनसे दूर हो जाती हैं अर्थात् उन्हें उन शुभभावों के कारण जब तक मुक्ति मिलती जब क शुद्धोपयोगी नहीं होवे। यद्यपि उनका संसार अल्प रह जाता है, मुक्ति क ओर उनका मुख हो जाता है, क्योंकि वे संयम, तप करते हैं, बैरागी हैं, आत्म वैभव से सुपरिचित हैं, परन्तु अभी उनके पंचपरमेष्ठी की भक्ति आदि के शुभभाव की मुख्यता है। इन कारणों से उनके शीघ्र मुक्ति संभव नहीं है। उन्हें परम्परा से मोक्ष होगा; क्योंकि वे सूक्ष्म पर स्वरूप हैं। इसप्रकार इस गाथा एवं टीका के कथन का अभिप्राय यह है कि समस्त व्यवहार धर्म का पालन करते हुए भी जबतक स्पर्धक सूक्ष्म परसमय रत रहेगा, तबतक वह स्वर्ग के आकुलता जन्य सुखाभास में रहेगा; उसे उस भव में मोक्ष प्राप्त नहीं होगा और कालान्तर में जब वह भेद-विज्ञान के द्वारा आत्मस्वभाव के सन्मुख होकर निश्चय चारित्र में अर्थात् निज स्वरूप में स्थिरता प्राप्त करना तब मोक्ष पद प्राप्त करता है। गाथा - १७१ विगत गाथा में कहा है कि ह्र व्यवहार धर्म का पालन करते हुए सूक्ष्म पर-समयरत रहने वालों को मोक्ष दूरतर होता है। अब गाथा १७१ में कहते हैं कि मात्र अरहतादि की भक्ति जितना राग स्वर्गसुख प्राप्त कराता है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र अरहंतसिद्धचेदियपवयणभत्तो परेण णियमेण । जो कुणदि तवोकम्मं सो सुरलोगं समादियदि।।१७१।। (हरिगीत) अरहंत-सिद्ध-जिनवचन सह जिनप्रतिओं केभजन को। संयम सहित तप जो करें वे जीव पाते स्वर्ग को||१७१|| जो जीव अरहंत, सिद्ध, चैत्य और जिनप्रवचन के प्रति भक्तियुक्त वर्तता हुआ परमसंयम सहित तप कर्म करता है वह स्वर्ग को प्राप्त करता है। आचार्य श्री अमृतचन्द देव टीका में कहते हैं कि ह्र जो जीव वास्तव में अरहंतादि की भक्ति के आधीन वर्तता हुआ परमसंयम प्रधान अतिथि संविभागादि व्रतों का पालन करता है, वह मात्र उतने रागरूप क्लेश से कलंकित मन वाला वर्तता हुआ जिसका अंतःकरण विषय विष की गंध से मोहित होता है ह्र वह ऐसे स्वर्ग लोक को प्राप्त करता है, जो मोक्ष का अंतराय है तथा जहाँ चिरकाल तक रागरूप अंगारों से संतप्त होता है। कवि हीरानन्दजी इसी भाव को काव्य में कहते हैं ह्र (दोहा ) जिन-सिद्ध-चैत्य-सु-प्रवचन, भगति करैमन लाय। संयमतपधारी पुरुष, सो सुरलोकहिं।।२५१ ।। (258)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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