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________________ ४८६ पञ्चास्तिकाय परिशीलन कहलाता है, तो जो निरंकुश रागरूप क्लेश से कलंकित हैं, ऐसी अनरंगवृत्ति वाले क्या पर समयरत नहीं कहलायेंगे? अवश्य कहलायेंगे ही। इस गाथा पर विशेष टिप्पणी करते हुए आचार्य श्री जयसेन ने कहा है कि ह्र कोई पुरुष निर्विकार शुद्धात्म भावना स्वरूप परमोपेक्षा संयम में स्थित रहना चाहता है, परन्तु उसमें स्थित रहने में अशक्त वर्तता हुआ काम-क्रोधादि अशुभ परिणामों के वंचनार्थ अथवा संसार स्थिति के छेदनार्थ जब पंच परमेष्ठी के प्रति गुणस्तवन आदि भक्ति करता है, तब वह सूक्ष्म परसमय रूप से परिणत वर्तता हुआ सराग सम्यग्दृष्टि है। यदि वह पुरुष शुद्धात्म भावना में समर्थ होने पर भी उसे शुद्धात्म भावना को छोड़कर 'शुभोपयोग से ही मोक्ष होता है' ह ऐसा एकांत माने तो वह स्थूल परसमय रूप परिणाम द्वारा अज्ञानी-मिथ्यादृष्टि हो जाता है। कवि हीरानन्दजी इसी भाव को काव्य में कहते हैं ह्र (दोहा ) ग्यानी जब अज्ञान तैं माने करम विमोख । सुद्ध प्रयोग परम्परा पर समयाश्रित धोख।।२२९ ।। (सवैया इकतीसा ) आपतै विमुख होई ग्यानी जीव जाही समै, ताहि समै एक अवलम्ब चाहे है। जारौं विषै उपजनि औ क्रोधादि बढ़नि, दौनों का विनास होइ कर्म पुंज दाहै है।। जिन आदि पंच गुरु उर मैं विचार करै, तिनही की भगति मैं प्रीति निरवाहै है। सुद्ध संप्रयोगधारी सूच्छिम परसमै तैं, परम्परा जीव सुद्ध मोख अवगाहै है।।२३१ ।। (दोहा) ग्यानी सुद्ध-सुभाव-युत, परसमयाश्रित सोड़। सूच्छिम-राग प्रभावः तद्भव मुकत न होइ।।२३२ ।। अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका (गाथा १५४ से १७३) (सोरठा) मुगति विरोधक राग, सवै विभावके जनक हैं। तातै पहिलहिं त्याग, राग-विरोध-विमोह मल ।। कवि कहते हैं कि - ज्ञानी जब क्षयोपशम अज्ञानवश अथवा वर्तमान पुरुषार्थ की कमजोरी से ऐसा कहे कि शुद्धसंप्रयोग अर्थात् शुभभाव भी परम्परा मोक्ष का हेतु है तो वह सूक्ष्म पर-समय है। यदि वह शुभराग को भी मोक्ष कारण माने तो वह मिथ्यादृष्टि ही है। इसलिए सूक्ष्मराग भी त्यागने योग्य ही है। ___ गुरुदेव श्री कानजीस्वामी अपने व्याख्यान में कहते हैं कि ह्र आत्मा का राग भले भगवान की भक्ति का ही क्यों न हो, वह बन्ध का ही कारण है। भले! शास्त्र पढ़ने का हो तो भी यदि सूक्ष्म राग को भी मोक्ष का कारण माने तो वह मिथ्यादृष्टि है। आत्मा का तो ज्ञान स्वभाव है, उसमें एकाग्रता छोड़कर राग में लीन होना तथा राग को मोक्ष का कारण माने तो वह जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। अरहंत भक्ति का शुभराग भी मोक्ष का कारण नहीं है। जिस भाव से तीर्थंकर नाम कर्म बंधे, वह भाव भी राग है। वह भी आदरणीय नहीं है। अपने ज्ञान-दर्शन स्वभाव में परिणमन करने से जो सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र हुआ, वह ही मोक्ष का कारण है। इसके सिवाय देव-गुरुशास्त्र की ओर का भक्तिभाव बंध का कारण है। मोक्ष की प्राप्ति का शुद्ध उपादान तो आत्मा का चैतन्य स्वभाव है तथा अरहंत देव वगैरह तो मोक्ष के निमित्त हैं। उस निमित्त की ओर के झुकाव वाला जो रागभाव है, वह ज्ञानस्वभाव नहीं है। वह बंध का कारण रूप शुभभाव है। इसप्रकार गाथा एवं टीका में आचार्य देव ने सूक्ष्म पर समय का स्वरूप कहा। (252) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद प्रसाद नं. २३०, दि. ९-६-५२, पृष्ठ-१८६४
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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