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गाथा - १५७ विगत गाथा में पर-चारित्र रूप पर समय का स्वरूप कहा है।
अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि जो पर समय में प्रवर्तन करेगा, उसे बंध होगा। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
आसवदि जेण पुण्णं पावं वा अप्पणोध भावेण। सो तेण परचरित्तो हवदि त्ति जिणा परूवेंति।।१५७।।
(हरिगीत) पुण्य एवं पाप आसव आतम करे जिस भाव से। वह भाव है परचरित ऐसा कहा है जिनदेव ने ||१५७|| जिस भाव से आत्मा को पुण्य-पाप आस्रवित होते हैं, उस भाव द्वारा वह जीव पर चारित्र है ह्र ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।
आचार्य श्री अमृतचन्द टीका में कहते हैं कि ह्र “यहाँ पर चारित्रवृत्ति बंध का हेतु होने से, उसे मोक्षमार्गपने का निषेध किया है, अर्थात् पर चारित्रवृत्ति मोक्षमार्ग नहीं है; क्योंकि वह बंध का हेतु है। __ वास्तव में शुभरूप विकारी भाव पुण्यासव है और अशुभरूप विकारीभाव पापास्रव है। पुण्य या पाप जिस भाव से आस्रवित होते हैं। वह भाव जब जिस जीव को हो तब वह जीव उस भाव द्वारा पर-चारित्र है ह्र ऐसा प्ररूपित किया जाता है। इसलिए ऐसा निश्चित होता है कि ह्र परचारित्र में प्रवृत्ति बंध मार्ग ही है, मोक्षमार्ग नहीं।" कवि हीरानन्दजी इसी भाव को काव्य में कहते हैं ह्र
(दोहा) पुण्य-पाप नित आसवै जा सुभाव करि लोइ। ता सुभाव करि जीव कै, पर चारितता होई।।१९९ ।।
अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका (गाथा १५४ सै १७३)
(सवैया इकतीसा) जाही समै जीव विर्षे सुभ उपराग होइ,
ताही समै भावपुण्य आस्रव कहाई है। ऐसे ही पाप-उपराग पाप-आस्रव कहावै,
पुण्य-पाप भाव सो तौ जीव मैं रहाई है। ता ही भावकरि जीव परचरित धारी है,
तातै पर की प्रवृत्ति बंधता लहाई है। मोक्ष पंथ बाधक है भवरूप साधक है,
ज्ञानी जीव जानि जानि आपतै बहाई है।।२००।। कवि का कहना है कि - जिस भावों से जीव पुण्य-पाप रूप आस्रव करता है, उससे उसे पर-चारित्र होता है। शुभ उपराग से पुण्यबंध एवं अशुभराग से पापबंध होता। उस पर-प्रवृत्ति से बंध होता, जोकि मोक्ष पंथ का बाधक है और संसार का साधक है, ज्ञानी ऐसा जानते हैं, अतः वे मोक्षमार्ग में लगते हैं।
गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी अपने व्याख्यान में कहते हैं कि ह्र “संसारी आत्मा में जो शुभाशुभ भाव होते हैं, वह अशुद्धोपयोग है। दया, दानादि के भावों से पुण्य के परमाणु आते हैं, हिंसा, झूठ, चोरी आदि से पाप के परमाणु आते हैं; वे सब अशुद्ध भाव हैं; वे अशुद्ध भाव परसमय का आचरण करनेवाले भाव हैं। स्वभाव से चूककर जो भी पर समय की प्रवृत्ति होती है, वह सब पर-चारित्र है। वह सब बंध का कारण है।
भावार्थ यह है कि यह बात भगवान ने कही है तथा शास्त्रों में लिखी है कि आत्मा का स्वभाव चूककर जो शुभभाव होता है, वह नये पुण्यबंध का कारण है तथा जो मिथ्यात्व व अशुभभाव होते हैं वे नये पुण्यबंध एवं पापबंध के कारण हैं। जिन भावों से पुण्य व पाप होते हैं व आस्रवभाव हैं।"
उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि ह्र जो व्यक्ति पुण्य को भला मानता है, वह उसे छोड़ना नहीं चाहता। वह अपने शुद्ध चिदानन्द स्वभाव को छोड़कर पुण्य-पाप भावों में आनन्द मानता है। पुण्य-पाप में रुचि रखता है और मानता है कि हम धर्म कर रहे हैं, जबकि यह भ्रान्ति है। . १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २२०, दि. ३०-५-५२, पृष्ठ-१७८९
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