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पञ्चास्तिकाय परिशीलन इसप्रकार 'अस्ति' का कथन करके अब 'काय' का स्पष्टीकरण करते हैं - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पदार्थ अवयवी हैं और प्रदेश इनके अवयव हैं, अवयवों में परस्पर व्यतिरेक (अन्य-अन्यपना) होने पर भी कायत्व की सिद्धि घटित होती है; क्योंकि परमाणु निरवयव होने पर भी उनको शक्ति अपेक्षा सावयवपने की योग्यता का सद्भाव है।
यहाँ ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है कि पुद्गल के अतिरिक्त अन्य पदार्थ अमूर्तपने के कारण अविभाज्य होने से उनके सावयवपने की (खण्डखण्डपने की) कल्पना, अनुचित है; क्योंकि आकाश अविभाज्य होने पर भी उसमें भी यह घटाकाश है, यह अघटाकाश (पटाकाश) है' ह्र ऐसी विभागकल्पना दृष्टिगोचर होती ही है। इसलिए कालाणुओं के अतिरिक्त अन्य सर्व में कायत्व नाम का सावयवपना निश्चित रूप से है।
छह द्रव्यों से जो तीन लोक की निष्पन्नता कही, वह भी उनका अस्तिकायपना सिद्ध करने के साधनरूप से ही कही है।
तीनलोक के सभी द्रव्यों के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाले भाव, जो कि विशेषस्वरूप हैं, परिणमित होते हुए अपने मूल पदार्थों का गुणपर्याययुक्त अस्तित्व सिद्ध करते हैं।
धर्म, अधर्म और आकाश ह्न ये प्रत्येक पदार्थ ऊर्ध्व-अधो-मध्य ह्न ऐसे तीन लोक के विभागरूप से परिणमित होने से उनके कायत्व नाम का सावयवपना है। प्रत्येक जीव के भी ऊर्ध्व-अधो-मध्य ह्र ऐसे तीन लोक के तीन विभागरूप से परिणमित तथा लोकपूरण अवस्थारूप शक्ति का सदैव सद्भाव होने से जीवों को भी कायत्व नाम का सावयवपना है। पुद्गल भी ऊर्ध्व-अधो-मध्य ह्न ऐसे लोक के (तीन) विभागरूप परिणत शक्तिवाले होने से उन्हें भी कायत्व नाम की सावयवपने की सिद्धि है ही।"
जयसेनाचार्य ने भी आचार्य अमृतचन्द्र के समान ही पंचास्तिकाय के अस्तित्व एवं कायत्व के विषय में बताया है।
कवि हीरानन्दजी इसी बात को पद्य में कहते हैं, जो इसप्रकार है ह्र
षड्द्रव्य पंचास्तिकाय (गाथा १ से २६)
(दोहा) नाना गुन परजाय करि, जिनके अस्ति सुभाव । अस्तिकाय ते जगतमैं, तिनहीं करि जगभाव।।४३।।
(सवैया इकतीसा) सहभावी गुन और क्रमभावी परजाय,
नाना भेद-भावकरि अस्ति जहाँ पावै है। एकता प्रदेसहूँ की पाँचौं मैं सुभाव सोई,
काय ताके कथने कौं भेद नीकै आवै है ।। एई पाँचौं अस्तिकाय जिनरायवानी विर्षे,
इनहींसौं लोकथिति सदाकाल भाव है। नाहीं किए करै कौन आदि अंत औ न पावै,
ग्यानी सरधान भयै नीकै जस गावै है ।।४४।। उक्त दोहे एवं सवैया में कहा है कि ह्न “नाना सहभावी एवं गुणभावी गुण-पर्यायों से जिनका अस्तित्व है, वे अस्तित्व स्वभाववाले बहुप्रदेशी पंचास्तिकाय द्रव्य जगत में हैं, इन्हीं से अनादि-अनन्त लोक की स्थिति है। इस लोक को न किसी ने बनाया है और न कोई इनका विनाशक है।
इस गाथा पर व्याख्यान करते हुए गुरुदेवश्री कानजी स्वामी ने कहा है ह्र “प्रत्येक पदार्थ अपने स्वयं के अनेक गुण-पर्यायों सहित अस्तित्व वाला है । पाँचों अस्तिकाय अनेकप्रकार के सहभूत गुण तथा व्यतिरेक रूप अनेक पर्यायों सहित अस्तित्व स्वभाववाले हैं।
जीव में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, प्रभुत्व आदि अनेक त्रैकालिक शक्तियाँ विद्यमान हैं, पुद्गल के परमाणु में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि, सभी गुण एकसाथ रहते हैं; पर्यायें एक के बाद एक होती हैं, अलगअलग होती हैं। जैसे कि ह्र आत्मा में शुभभाव के बाद अशुभभाव तथा कम जानना, अधिक जानना आदि होता है। परमाणु में भी स्पर्श, रस, गंध, वर्ण तो कायम रहते हैं; पर उनकी पर्यायें एक के बाद एक होती रही
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