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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
( सवैया इकतीसा )
आत्मा अनादि-रागी, परभाव पागी तातैं, औदयिकभाव मांहि नवा भाव धारे है। ताही भाव - कारन तैं पुग्गल विविध कर्म,
एकमेव रूप होइ बंधन समारै है ।। तातैं राग-दोस- मोह - चिकनाई भावबंध,
कारण निमित्त रूप लोककाज सारै है । कर्मरूप पुग्गल औ जीवदेस एकमेक,
द्रव्य बंध सोइ लसै ज्ञानी भेद पारे है ।। १५७ ।। कवि उक्त पद्यों में कहते हैं कि ह्न सरागी जीव जो शुभाशुभ भाव करता है, उनका निमित्त पाकर द्रव्यकर्मों का बंध होता है।
आत्मा अनादि से रागी हआ परभावों में रचता- पचता है, इसकारण औदयिक भावों में नये भाव धारण करता है। उन भावों के कारण से विविध पौद्गलिक कर्म आत्मा से एक-मेक होकर बंधते हैं। फिर उनसे मोह-राग-द्वेष रूप होकर भाव कर्म बंधते हैं। उस भावबंध से कर्मरूप पुद्गल बंधते हैं, फिर दोनों एकमेक होकर कर्म प्रक्रिया चलती है। ज्ञानी दोनों के भेद को जानकर समता रखते हैं।
गुरुदेव श्री कानजीस्वामी अपने व्याख्यान' में कहते हैं कि ह्न “आत्मा ज्ञान स्वभावी है, उससे चूककर जो अज्ञान भाव से पुण्य-पाप एवं रागद्वेष रूप भाव होते हैं वे भाव बन्ध हैं, विकार परिणाम हैं। उनके निमित्त से जो जड़ कर्म बंधते हैं, वे द्रव्यकर्म हैं। ज्ञानी दोनों यथार्थ जानता है।"
तात्पर्य यह है कि ह्न आत्मा अनादि अविद्या के कारण पर के सम्बन्ध से मोही होता है तथा कर्म के उदय के निमित्त से शुभाशुभभाव करता है। यद्यपि जीव एवं कर्म के बीच अत्यन्ताभाव है; किन्तु अपने स्वभाव को चूककर पर में सजग हुआ तथा निमित्ताधीन होकर जीव जो रागादि भाव करता है, वह भावबंध है। ज्ञानी दोनों को यथार्थ जानता है।
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. ११२, दिनांक २१-५-५२, पृष्ठ- १९०८
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गाथा - १४८
विगत गाथा में द्रव्यबंध एवं भाव का स्वरूप समझाया।
अब इस गाथा में बंध के बहिरंग एवं अंतरंग का स्वरूप कहते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र जोगणिमित्तं गहणं जोगो मणवयणकायसंभूदो । भावणिमित्तो बंधो भावो रदिरागदोसमोहजुदो । । १४८ । । (हरिगीत)
हैयोग हेतुक कर्म आस्रव, योग तन-मन जनित है।
है भाव हेतुक बन्ध अर भाव रतिरुष सहित है ।। १४८ || कर्मग्रहण का निमित्त योग है। योग मन-वचन-काय जनित हैं। बंध का निमित्त भाव है; भाव राग-द्वेष-मोह से युक्त आत्म परिणाम है।
आचार्य अमृतचन्द्र देव टीका में कहते हैं कि ह्न “कर्म पुद्गलों का जीव के प्रदेशों के साथ एक क्षेत्र में स्थित होना बंध है, उसका निमित्त योग है। योग अर्थात् मन योग- वचन योग व काय योग ह्न ये कर्मबंध में निमित्त हैं। भावार्थ यह है कि ह्न कर्मबंध पर्याय के चार प्रकार हैं ह्र प्रकृति बंध, प्रदेश बंध, स्थिति बंध और अनुभाग बंध। इनमें स्थिति अनुभाग ही विशेष हैं, प्रकृति प्रदेश गौण हैं; क्योंकि स्थिति - अनुभाग के बिना कर्मबन्ध पर्याय नाममात्र ही रहता है। इसलिए यहाँ प्रकृति- प्रदेशबंध का मात्र ‘ग्रहण' शब्द से कथन किया है। और स्थिति- अनुभाग बन्ध का ही 'बंध' शब्द से कथन है।
इसी के भाव को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहा है
(दोहा)
करम ग्रहण है जोग करि, जोग वचन-मन-काय ।
भाव हेतु थिति बंध है, रागादिक उपजाय ।। १५९ ।। ( सवैया इकतीसा )
काय बाक-मनो रूप बरगनावलंबी है,
आतम- प्रदेस बंध जोग नाम कहना । तिनका निमित्त पाय कर्मपुंज आवै धाय,
आतम प्रदेस विषै एकमेव गहना ।।