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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
ग्यानी के सरूप धरै तीव्रराग नास करै,
एई तीनौ क्रियारूप मोख की वितरनी । । ११४ । । ज्ञानी अरहंतादि पंच परमेष्ठी की भक्ति करता है, इस प्रकार ज्ञानी व्यवहार धर्म का आचरण करता है। वस्तुस्वरूप के साधन में प्रीति करता है था तत्त्वज्ञान से अनभिज्ञ अज्ञानी जीव इन्हीं क्रियाओं को करते हुए मोक्षमार्ग को काटता है।
गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि - अरिहंत, सिद्ध तथा मुनियों के प्रति भक्तिभाव होना प्रशस्त राग है।
सम्यग्दृष्टि धर्मात्माओं को वीतराग भगवान की भक्ति का भाव आता है। वीतराग प्रतिमाजी के दर्शन का भाव आता है। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के प्रति भक्ति का भाव आये बिना नहीं रहता, परन्तु जो ऐसे शुभराग को धर्म माने तो वह जीव राग को व धर्म के अन्तर नहीं समझता। धर्मी को अपनी राग की भूमिका में देव गुरु की पूजा-भक्ति प्रभावना वगैरह का भाव होता ही है; किन्तु उसे वह आश्रव ही समझता है । परजीवों को बचाने का भाव पाप नहीं है, बल्कि पुण्य है; परन्तु "मैं पर जीव को मार सकता हूँ या बचा सकता हूँ" ह्र ऐसी मान्यता मिथ्यात्व है। ध्यान रहे, मिथ्यादृष्टि जीवों को भी जो दया का भाव आता है, वह भी पुण्यास्रव है।
अज्ञानी को पंचपरमेष्ठी के प्रति भक्ति का भाव आता है; किन्तु वह अन्तर से यथार्थपने पंचपरमेष्ठी को पहचाने तो अन्तर आत्मा का भान हुए बिना नहीं रहता, होता ही है; क्योंकि परमेष्ठी भी तो आत्मा ही हैं। यदि उनके शुद्ध आत्मा को पहचाने तो अपना आत्मा भी उन्हीं जैसा है। इस तरह वह अपने आत्मा को पहचान लेता है और उसे सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान हुए बिना नहीं रहता। वह सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है।
अज्ञानी को भी पंचपरमेष्ठी की भक्ति करने से मिथ्यात्व सहित शुभभाव होता है। देह की क्रिया आस्रव नहीं है, बल्कि जीव के जो शुभाशुभ परिणाम हुए, वह भावास्रव है।" इसप्रकार पुण्यास्रव का व्याख्यान हुआ ।
१. श्री प्रवचन प्रसाद नं. १९९, गाथा-१३६, पृष्ठ- १६०४
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गाथा - १३७
विगत गाथा में प्रशस्त राग के स्वरूप का कथन किया । अब प्रस्तुत गाथा में अनुकम्पा के स्वरूप का कथन है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र तिसिदं व भुक्खिदं वा दुहिदं दट्ठण जो दु दुहिदमणो । पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकंपा । । १३७ ।।
(हरिगीत)
क्षुधा तृषा से दुःखीजन को व्यथित होता देखकर । जो दुःख मन में उपजता करुणा कहा उस दुःख को ॥१३७॥ तृषातुर, क्षुधातुर दुःखी को देखकर जो जीव मन में दुःख पाता है, करुणा से द्रवित होता है, उसका वह भाव ह्न अनुकम्पा है।
आचार्य श्री अमृतचन्द कहते हैं कि ह्न “किसी तृषादि दुःख से पीड़ित प्राणी को देखकर करुणा के कारण उसका प्रतिकार करने की इच्छा से चित्त में आकुलता होना अज्ञानी की अनुकम्पा है। ज्ञानी की अनुकम्पा तो निचली भूमिका में रहते हुए जन्म-मरण रूप संसार सागर में डूबते-उतराते हुए जगत को देखकर हृदय में दुःख होना करुणा है।” कवि हीरानन्दजी काव्य की भाषा में कहते हैं ह्र (दोहा)
तृतिबुभुच्छित दुखित कौं देखि दुखित जो हो । प्रतीकार करुणा करै, तस अनुकम्पा जोड़। । ११६ ।। ( सवैया इकतीसा )
तृषा सौं तृषित भारी भूख सौं बुभुच्छा धारी,
दुःख सौं दुखित देह सारी विकराल है। ऐसा नरनारी रूप रोग-कूप-बूढ़ा देखि,
हा हा कै अज्ञानी जीव आकुल बेहाल है।