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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
वर्तमान पर्याय को लक्ष में लेता है, उसे पर्यायार्थिकनय कहते हैं। द्रव्यार्थिकनय से प्रत्येक द्रव्य अपने सत्तागुण से अभेद है एवं गुणभेद की अपेक्षा पर्यायार्थिकनय से अनेक भेदस्वरूप है। आत्मा और परमाणु दोनों में सत्तागुण है। वह गुण गुणी से अभेद है। सत्ता गुण और सत्तावान द्रव्य अभेद हैं, यह द्रव्यार्थिकनय का विषय है। पर्यार्थिकनय का विषय गुण और गुणी में भेद बताना है।
इसप्रकार आत्मा और उसके सत्तागुण को अभेद से देखो तो एक है और गुण गुणी के भेद से देखें अथवा पर्यायों से देखें तो अनेक हैं। इसीप्रकार परमाणु और उसके सत्तागुण को अभेद से देखा जाये तो एक है और भेददृष्टि से देखा जाये तो गुण एवं पर्यायें अनेक हैं। यहाँ भेद-अभेद दोनों एक वस्तु में ही घटित किये हैं। आत्मा और पुद्गल परमाणु त त्रिकाल भेदस्वरूप ही हैं।
जिसप्रकार शरीर के हाथ-पैर आदि अवयव होने से शरीर को काया कहते हैं, उसीप्रकार काल को छोड़कर आत्मा आदि पाँच द्रव्यों के प्रदेश अनेक होने से कायवान कहते हैं। चार द्रव्य अखंड कायवान हैं, उनमें से जिसके जितने प्रदेश हैं, उसमें से कम ज्यादा नहीं होते। परमाणु में स्कंधरूप होने की योग्यता है; अत: परमाणु को भी अस्तिकाय कहते हैं।
जब एक परमाणु दूसरे परमाणु से मिलकर स्कन्धरूप होता है, तब स्कन्ध रूप होने पर भी परमाणु अपनी सत्ता नहीं छोड़ता । स्थूलरूप से अथवा सूक्ष्मरूप से परिणमित होने की प्रत्येक परमाणु की जो योग्यता है, वह दूसरे परमाणु के कारण नहीं है।
यद्यपि परमाणु स्वयं के रूक्षता एवं चिकनाहट गुणों के कारण परमाणुरूप स्कन्ध की अवस्था धारण कर व्यवहार से एक स्कन्ध कहलाता है, तो भी प्रत्येक परमाणु स्वयं के एकरूप स्वभाव को नहीं छोड़ता । सदा एक ही द्रव्य रहता है। "
कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं, जो इसप्रकार है ह्र
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पंचास्तिकाय: भेद-प्रभेद ( गाथा १ से २६ )
(दोहा)
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जीव काय पुग्गल धरम, अधरम नाम अकास ।
अस्तिभावयुत आपगत, अनु महंत सुविलास । । ३९।। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म एवं आकाश ह्न ये पाँच अस्तिकाय द्रव्य हैं। ये पाँचों अणु एवं महान हैं।
इसप्रकार परमाणु जड़ होने पर भी अपनी शक्ति से कार्य कर रहा है। इस गाथा का व्याख्यान करते हुए गुरुदेव श्री कानजी स्वामी ने कहा ह्र “प्रत्येक पदार्थ स्वयं की सत्ता भिन्न बनाये रखता है । प्रत्येक द्रव्य सामान्य एवं विशेष अस्तित्व में निश्चित है; स्वयं की सत्ता से भिन्न नहीं है। सत्ता और सत्तावान अभेद है, भेद नहीं है।
प्रत्येक परमाणु एक समय में स्वयं की उत्पाद-व्यय- ध्रुवरूप सत्तामय है। उत्पाद अर्थात् नवीन अवस्थारूप से उत्पन्न होना एवं व्यय अर्थात् पूर्व अवस्था का नाश होना और ध्रुव अर्थात् मूलवस्तु कायम रहना, सदृशरूप से रहना। इसप्रकार तीन मिलकर वस्तु एक है।
एक जीव में जो उत्पाद-व्यय-ध्रुव हैं, वे उत्पाद-व्यय-ध्रुव दूसरे जीव के अथवा परमाणु के उत्पाद-व्यय-ध्रुव के कारण नहीं है; और परमाणु के उत्पाद-व्यय-ध्रुव जीव के उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य के कारण नहीं है।
कोई भी पदार्थ स्वयं की सत्ता छोड़कर दूसरे को स्पर्श नहीं करता । आत्मा में अनंत गुणों की अवस्था एक समय में उत्पन्न हो और एक समय में व्यय हो और स्वयं ध्रुवरूप से कायम रहे, ऐसा होने से एक आत्मा दूसरे आत्मा का अथवा शरीरादि जड़ का कुछ कार्य नहीं करते ।
किसी की सत्ता अन्य पर आश्रित नहीं है। ऐसी श्रद्धा होने से यह अहंकार मिट जाता है कि ह्न 'मैं हूँ तो दूसरे लोग ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं, मेरे