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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
“यह गाथा इतनी महत्वपूर्ण है कि ह्न यह आचार्य कुन्दकुन्ददेव के पाँचों ग्रन्थों में है। यह समयसार में ४९वीं, प्रवचनसार में १७२वीं, नियमसार में ४६वीं एवं भावपाहुड़ में ४५वीं गाथा है तथा यहाँ १२७वीं गाथा है।
जीव- पुद्गलों के संयोग में ६ प्रकार के संस्थान, ६ प्रकार के संहनन ये सब जड़ हैं। ये जीव की पर्यायें नहीं है। पाँच वर्ण, पाँच रस, आठ स्पर्श, दो गंध तथा शब्द पुद्गल जन्य पर्यायें हैं। भाषा भी जड़ है।
जीव ज्ञान-दर्शन गुण वाला है। अतीन्द्रिय ज्ञान से जाना जाता है। तात्पर्य यह है कि आत्मा द्रव्य अनादि मिथ्या वासना से तथा अज्ञान से शरीर एवं इन्द्रियों को अपना मानता है। देवगति में जाय तो देव शरीर को अपना मानकर वासना किया करता है। पूर्व कर्म के निमित्त जैसा शरीर आँख, कान, नाक वगैरह मिलता है, उसे मानता है कि मेरे कारण मिले हैं, ऐसा मानकर उसमें अहं भाव करता है। यह मिथ्याभाव की प्रवृत्ति अपनी पर्याय में स्वयं के कारण ही होती रहती है, ऐसा न मानकर पर के कारण यह सब हुआ है ह्र ऐसा मानता है। विकार और संयोग नष्ट हो जाते हैं। अकेला चैतन्य स्वभाव रह जाता है ह्न यह बात अज्ञानी की समझ में नहीं आती ।
जीव व अजीव का भेद जानकर जो जीव भेद विज्ञानी होकर आत्मा का अनुभव करता है तथा मोक्षमार्ग को साधकर निराकुल सुख का भोक्ता होता है। अजीव की परिणति अजीव में है। जीव की परिणति जीव में है। पर के कारण मुझे संसार नहीं है। मैं तो पर का एवं राग का मात्र ज्ञाता हूँ, जो ऐसा भेदज्ञान करता है, वह सुख भोगता है। "
इसप्रकार इस गाथा में कहा है कि भगवान आत्मा का स्वरूप पुद्गल एवं अन्य धर्म, अधर्म, आकाश काल से भिन्न ज्ञानानन्द स्वरूप तो है ही, अरस, अरूप, अगंध एवं अस्पर्श स्वभावी भी हैं अर्थात् आत्मा मूर्तिक तथा जड़ अमूर्तिक पदार्थों से भिन्न है। ऐसा भेद ज्ञान करना ही धर्म है। • १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९४, दि. ५-५-५२, पृष्ठ- १५६२
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गाथा - १२८, १२९, १३०
विगत गाथाओं में यद्यपि अजीव द्रव्यों का स्वरूप बताया है? तथापि १२७वीं गाथा जो आचार्य कुन्दकुन्द के समयसारादि ग्रन्थों में भी है, उसमें ज्ञान - दर्शन रूप चेतना से युक्त जीवद्रव्य को अजीव द्रव्यों से भिन्न बताया है । इसप्रकार इस गाथा का महत्त्व बताते हुए इसका विशेष उल्लेख किया है।
अब गाथा १२८,१२९,१३० में जीव - पुद्गल के संयोग से उत्पन्न ६ प्रकार के संस्थान व संहनन आदि सब जड़ हैं ह्न यह बताते हैं ह्र मूल गाथायें इसप्रकार हैं ह्र
जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी । । १२८ । । गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते । तेहिं दु बिसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा । । १२९ ।। जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो ।। १३० ।। (हरिगीत)
संसार तिष्ठे जीव जो रागादि युत होते रहें । रागादि से हो कर्म आस्रव करम से गति-गमन हो ॥ १२८ ॥ गति में सदा हो प्राप्त तन-तन इन्द्रियों से सहित हो । इन्द्रियों से विषयग्रहण अर विषय से फिर राग हो ॥ १२९ ॥ रागादि से भवचक्र में प्राणी सदा भ्रमते रहें ।
हैं अनादि अनन्त अथवा, सनिधन जिनवर कहे ॥ १३० ॥
जो संसार में स्थित जीव हैं, उनसे रागादि स्निग्ध परिणाम होता है, उन परिणामों से कर्म और कर्म से गतियों में गमन होता है।