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________________ ३७० ३७१ पञ्चास्तिकाय परिशीलन (सवैया इकतीसा) पंचेन्द्रिय जाति नामकर्म कै उदय भये, पंचेन्द्रिय रूप सारे जीवौं मैं जगते हैं। तिनमें कोई मन-इन्द्री बिना डौलैं, केई मनधारी, जीव समान लगत हैं ।। देव नारकी के समान कहावे जीव, पसु माँहिं दौनौ भेद लोक मैं वगत है। ऐसै पंचेन्द्रिय पद पावै है अनेक बार, पंचपद पावै नाहिं मूढ़ता पगत है।।४७ ।। (दोहा) ए पंचेन्द्रिय पद प्रगट, आपद-पद की खानि । जो आपन पद कौं लखै, तो इन पद की हानि।।४८ ।। उक्त पद्यों में कवि कहते हैं कि ह्न पंचेन्द्रिय नामकर्म के उदय से देव मनुष्य नरक तिर्यंच गतियों में विषयों की प्रधानता है। जलचर-थलचरनभचर सभी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव हैं। उनमें कुछ तो बिना मन वाले असैनी होते हैं, कुछ मन वाले सैनी होते हैं। देव नारकी तो मन वाले ही होते हैं तथा तिर्यंचों में दोनों प्रकार के होते हैं। जीव इसप्रकार अनेक बार पंचेन्द्रिय तो जाते हैं, परन्तु आत्मज्ञान से शून्य होने से पंचमगति आज तक प्राप्त नहीं की। ये पंचेन्द्रियों के पद तो आपद की खान है, जो जीव अपने स्वभाव को पहचान लेते हैं वे इस संसार के दुःख से मुक्त हो जाते हैं। गुरुदेव श्री कानजीस्वामी व्याख्यान करते हुए कहते हैं कि ह्र “जब जीवों का विकास होते-होते ये एक इन्द्रिय, दो, तीन, चार एवं पंच इन्द्रियों में आते हैं तो वहाँ देव, मनुष्य, नारकी तथा तिर्यंच गति के जीव के रूप में जन्म लेते हैं। उनके पाँचों इन्द्रियाँ होती हैं, परन्तु पशु योनि में जलचर, नभचर और थलचर के रूप में मछली, पक्षी तथा कुत्ता-बिल्ली जीव पदार्थ (गाथा १०९ से १२३) आदि की पर्यायों में जन्म लेते हैं। पंचेन्द्रिय जीवों के स्पर्श-रस-गंधवर्ण एवं शब्द ह्र इन पाँचों विषयों का ज्ञान होता है। वे इन पाँचों इन्द्रियों और मन द्वारा पर पदार्थों को तो जानते हैं, परन्तु आत्मा को नहीं पहचानते । आत्मा इन्द्रियों द्वारा जाना भी नहीं जा सकता । वह तो अतीन्द्रिय स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा जाना जाता है। ये पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी व असंज्ञी के भेद से दो प्रकार के होते हैं। जो मन सहित हैं वे संज्ञी और जो मन रहित हैं वे असंज्ञी जीव हैं।" श्री आचार्य जयसेन टीका में कहते हैं कि ह्र “आत्मा का स्वभाव अतीन्द्रिय है। उसके आश्रय से तात्विक सच्चा आनन्द उत्पन्न होता है, परन्तु जिन्हें आत्मा के स्वभाव का भान नहीं है तथा पांच इन्द्रियों के विषयों में सुख मानते हैं, वे पंचेन्द्रि जाति नामकर्म उपार्जन करते हैं, परन्तु आत्मज्ञान न होने से आत्महित नहीं होता।" यही बात अंत में जयसेनाचार्य ने कही कि ह्र जो जीव आत्मा के अतीन्द्रिय स्वभाव को नहीं जानते और पाँच इन्द्रियों के विषयों में सुख मानते हैं वे पंचेन्द्रिय नामकर्म का उपार्जन कर संसार में ही जन्म-मरण करते हैं। इसप्रकार गुरुदेवश्री ने संसारी अज्ञानी जीवों का परिचय कराते हुये पाँच इन्द्रियों में देव नारकी व तिर्यंचों की चर्चा करके बताया कि जो जीव आत्मा को नहीं पहचानते, वे संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। (194) १. श्रीमद् सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९०, गाथा-११७, पृष्ठ-१५३२
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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