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पञ्चास्तिकाय परिशीलन वह तो अन्त में यही रह जायेगा और जिससे तेरा परिचय नहीं ह्र ऐसा तू अपने कर्मफल के कारण चौरासी के चक्कर में फँस जायेगा; क्योंकि अज्ञानी को अपने ही आत्मा से परिचय नहीं है। इसी कारण एकेन्द्रिय आदि की हीनदशा में पहुँच जाता है। त्रस पर्याय का अधिकतम काल दो हजार सागर है, उसके बाद तो स्थावर में जाना ही है। ऐसा ही नियम है। वहाँ एकेन्द्रिय अवस्था में ही बारम्बार मरण करके अनंतकाल बिताता है, तब कहीं भाग्योदय से पुनः त्रस पर्याय में आता है।
छहढाला में दौलतरामजी ने कहा भी है कि ह्न 'काल अनन्त निगोद मझार बीत्यो एकेन्द्रियत न धार।' अतः इस भव में आत्मा को न पहचानने की भूल नहीं करना चाहिए।
आत्मा शक्ति से प्रभु है तथा पर्याय में प्रभु होने की योग्यता है। जिसको ऐसा ज्ञान नहीं है तथा स्वयं विभाव (विकारी भाव) जितना ही अपने को मानता है, वह हीनदशा को प्राप्त करता है। राग की मंदता करते-करते जब यह जीव दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय असंज्ञी संज्ञी दशा को प्राप्त करता है; किन्तु वहाँ आकर फिर ऐसी भूल करता है, जिसके कारण पुनः वहीं एकेन्द्रिय में चला जाता है।" ___अतः आचार्यश्री एवं गुरुदेवश्री यह प्रेरणा देते हैं कि ह्न अब तुम मनुष्य पर्याय एवं उत्तम कुल में आ गये हो ह्र क्षयोपशम और परिणामों में विशुद्धि भी इस योग्य हैं कि तत्त्वज्ञान कर सकते हो, अतः ऐसा काम करो कि पुनः ऐकेन्द्रिय में न जाना पड़े। यह पुरुषार्थ करते-करते।
इसी क्रम में चैतन्य आत्मा में उग्र पुरुषार्थ से विकास करते हुए प्रत्यक्षपने स्व-पर पदार्थों को जानने की योग्यता प्रगट हो जाती है। शक्ति अपेक्षा यही शक्ति एकेन्द्रिय जीव में भी हैं। परन्तु वहाँ से निकलकर मनुष्य गति, उत्तम कुल एवं जिनवाणी सुनने की योग्यता मिलना सरल काम नहीं है, अतः यह अवसर नहीं चूकना चाहिए। १. श्रीमद् सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९०, दि. ७-५-५२, पृष्ठ-१५२९
गाथा - ११३ विगत गाथा में पृथ्वीकायिक आदि पंचविध जीवों के एकेन्द्रियपने का ज्ञान कराया है।
अब प्रस्तुत गाथा में एकेन्द्रिय जीवों के स्वरूप को दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
अंडेसु पवढ्ता गब्भत्था माणुसा य मुच्छगया। जारसिया तारिसया जीवा एगेंदिया णेया।।११३।।
(हरिगीत) अण्डस्थ अर गर्भस्थ प्राणी ज्ञान शून्य अचेत ज्यों। पंचविध एकेन्द्रि प्राणी ज्ञान शून्य अचेत त्यों ।।११३।।
इस गाथा में अण्डस्थ गर्भस्थ एवं ज्ञान शून्य अचेत मनुष्य का दृष्टान्त देकर एकेन्द्रिय जीवों का स्वरूप समझाया है।
आचार्य श्री अमृतचन्द्र स्वामी टीका में कहते हैं कि जिस तरह अण्डे में रहे हुए, गर्भ में रहे हुए और मूर्छा में पड़े हुए प्राणियों के जीवत्व का बुद्धिपूर्वक व्यापार नहीं देखा जाता, फिर भी उनके जीवत्व का निश्चय किया जाता है। उसीप्रकार ह्न एकेन्द्रिय जीवों के जीवत्व का भी निश्चय किया जाता है; क्योंकि दोनों में ही बुद्धिपूर्वक व्यापार दृष्टिगोचर नहीं होता। इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में निम्न प्रकार कथन करते हैं ह्र
(दोहा) अंडज अंड विर्षे जथा, गर्भज मूर्च्छित जीव । ज्यौं ए चेतन कहत त्यों एकेन्द्रिय सदीव।।३४ ।।
(सवैया इकतीसा) जैसैंकै अंडज-जीव अंडहुविर्षे वरतै,
गर्भवाले गर्भ जैसै और मूरछित हैं।
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