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गाथा-१०७ विगत गाथा में आप्त की स्तुति पूर्वक नवपदार्थों का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की है। अब प्रस्तुत गाथा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र के स्वरूप का कथन है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं तेसिमधिगमो णाणं । चारित्तं समभावो विसएसु विरूढमग्गाणं ।।१०७।।
(हरिगीत) नव पदों के श्रद्धान को समकित कहा जिनदेव ने। वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान अर समभाव ही चारित्र है।।१०७|| भावों का अर्थात् नव-पदार्थों का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है, उनका अवबोध सम्यग्ज्ञान है तथा सम्यग्दर्शन ज्ञान पूर्वक विषयों के प्रति वर्तता हुआ समभाव ही चारित्र है।
टीका का आचार्य श्री अमृतचन्द्र स्वामी कहते हैं कि ह्न कालद्रव्य सहित पंचास्तिकाय के भेदरूप नव पदार्थ वास्तव में 'भाव' हैं। उन भावों का श्रद्धान अर्थात् नव पदार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। जोकि सम्यग्दर्शन रूप शुद्ध चैतन्य (आत्मतत्त्व) के दृढ़ निश्चय का बीज है। इन्हीं नवपदार्थों का ही सम्यक् अध्यवसाय, (सत्य समझ, सच्चा अवबोध होना) सम्यग्ज्ञान है। जोकि आत्मज्ञान की उपलब्धि (अनुभूति का) बीज है।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के सद्भाव के कारण जो स्वतत्व में दृढ़ हुए हैं, उन्हें इन्द्रिय और मन के विषयभूत पदार्थों के प्रति राग-द्वेषपूर्वक विकार के अभाव के कारण जो निर्विकार ज्ञान स्वभाववाला समभाव होता है, वह चारित्र है। वह चारित्र मोक्ष के निराकुल सुख का बीज है।
ऐसे त्रिलक्षण (सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र) रूप मोक्षमार्ग का निश्चय व व्यवहार से व्याख्यान किया जायेगा।
इसी गाथा के भाव को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र
नवपदार्थ एवं मोक्षमार्ग प्रपंच (गाथा १०५ से १०८)
(सवैया इकतीसा) नव तत्त्वविषै आप-पररूप रूपी श्रद्धा,
आप लीक उपादेय सम्यक् दरस है। तिनही मैं संसै मोह विभ्रम विनास होते,
आप-पर जानपना ज्ञान का परस है। पररूप परसंग झारि आपविष लीन,
चंचलता-भाव हीन चारित अरस है। एई तीन भेद मोख-मारग जिनेस कहे,
विवहार निहचै सौं आतम सरस है।।१०।। यहाँ कवि हीरानन्दजी कहते हैं कि ह्र जब सम्यग्दर्शन होता है तभी नवतत्त्व की श्रद्धा, स्व-पर का भेदज्ञान होता है तथा दर्शनमोह का नाश होता है। स्व-पर का भेदज्ञान रूप सम्यग्ज्ञान होता है तथा यथासमय चंचलता का अभाव होने से आपरूप में लीनता का होना ही मोक्षमार्ग है। ___ इसी गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र “आत्मा शुद्ध चिदानन्द स्वरूप है। उसकी प्रतीति लिए छः द्रव्यादि की प्रतिति रूप व्यवहार समकित है। पंचास्तिकाय में ५५ पृष्ठ में कहा है कि ह्र सूक्ष्मदृष्टि वालों को काल द्रव्य सहित पांच अस्तिकाय को स्वीकार करना चाहिए। तथा नवतत्त्व की श्रद्धा व्यवहार समकित है और शुद्ध चैतन्य स्वभाव को जुदा मानकर अन्तर श्रद्धा करना निश्चय समकित है।
उक्त नव पदार्थों का यथार्थ अनुभव सम्यग्ज्ञान है तथा पाँच इन्द्रियों के विषयों को हठपूर्वक न करके भेद विज्ञानी जीवों की जो राग-द्वेष रहित शांत स्वभाव सम्यक्चारित्र है। जिसे अपने स्वभाव की प्रतीति होती है, उसे ही नवपदार्थों की यथार्थ प्रतीति होती है। वह जीव को जीव तथा जड़ को जड़ जाने, पुण्य-पाप को विकार जाने तथा जो त्रिकाली स्वभाव को शुद्ध जाने उसे ही यथार्थ प्रतीत है।"
इसप्रकार इस गाथा का मूल विषय यह है कि - नवपदार्थों का श्रद्धान, ज्ञान एवं इन पूर्वक स्वरूप में स्थिरता सम्यक्चारित्र है। . १. श्रीमद् सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १८५, दि. ३-५-५२ शनिवार
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