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पञ्चास्तिकाय परिशीलन भावस्तुति करके छहद्रव्यों का नवपदार्थों के रूप में तथा मोक्षमार्ग कहने की प्रतिज्ञा की गई है। कवि हीरानन्दजी कहते हैं ह्र ।
दोहा) महावीर कौँ नमन करि कहौं पदारथ भंग । मोख सुगम मारग लसै, अपुनर्भव परसंग ।।२।।
(सवैया इकतीसा) वर्तमान धर्मतीर्थ ताका करतार कहा,
वर्द्धमान स्वामी ताकौं सिरसा नमन है। ऐसी भावथुति सिद्धगति का निमित्त जानि,
हियै उपादेय मानि सुद्धता रमन है ।। तात जे पदारथ हैं मोख पंथ हेतु कहे,
तिनहीं की जानवै का उद्यम गमन है।। ऐसी मुनिराज चाल आप काज विषै लसै,
ताकि सुद्ध भावन तैं मोह का वमन है।।३।। गुरुदेव श्रीकानजी स्वामी कहते हैं कि ह्न कुन्दकुन्दाचार्य मोक्ष के कारण भूत वर्द्धमान तीर्थंकर भगवान को मस्तक झुकाकर नमस्कार करके मोक्ष के कारणभूत छहद्रव्यों के नवपदार्थों के भेदों का कथन की प्रतिज्ञा करते हैं।
'भव के अभाव का कारण तो आत्मा का स्वभाव है' ह्न जिसको ऐसी रुचि है, उसे भगवान निमित्त होते हैं। इसी कारण यहाँ पहले भगवान की स्तुति करते हैं।
आगे कहते हैं कि ह्न जिस भाव से भव (संसार) मिले, वह भाव आकुलता है। उस आकुलता से रहित अकेला ज्ञायक भाव जिसके रह गया तथा जिसने पूर्ण दशा (मुक्ति) प्राप्त करली है तथा जिसके ज्ञान में तीनों लोकों को जाना है ह्न ऐसे सर्वज्ञ देव अपुनर्भव के कारण हैं।"
इसप्रकार मोक्ष के कारणभूत वर्धमान भगवान को नमन करके छह द्रव्यों एवं नव पदार्थ का वर्णन करेंगे।
गाथा- १०६ विगत गाथा में मंगलाचरण करके नवपदार्थ कहने की प्रतिज्ञा की है।
अब प्रस्तुत गाथा सम्यक्त्व और ज्ञान सहित मोक्षमार्ग का कथन करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्न
सम्मत्तणाणजुत्तं चारित्तं रागदोसपरिहीणं । मोक्खस्स हवदि मग्गो भव्वाणं लद्धबुद्धीणं।।१०६।।
(हरिगीत) सम्यक्त्व ज्ञान समेत चारित राग-द्वेष विहीन जो। मुक्ति का मारग कहा भवि जीव हित जिनदेव ने||१०६||
सम्यक्त्व और ज्ञान से सहित एवं राग-द्वेष रहित चारित्रवंत भव्य जीवों को मोक्ष का मार्ग होता है।
टीका में आचार्यश्री अमृतचन्द्र कहते हैं कि ह्न सम्यक्त्व और ज्ञानयुक्त तथा राग-द्वेष रहित चारित्र ही मोक्ष का मार्ग है। यह मोक्ष मार्ग भव्यों को, लब्धबुद्धियों को तथा क्षीण कषायपने में ही होता है।
इसके विपरीत असम्यक्त्व अवस्था में अज्ञान, अचारित्र, राग-द्वेष सहित अवस्था में और बन्ध मार्गवालों को, अभव्यों एवं कषायवानों को नहीं होता है। इसी भाव को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र
(दोहा) जो चारित समकित सहित, राग-दोस-परिहीन । सो चारित सिव पंथ है, भवि आतम आधीन।।५।।
(सवैया इकतीसा) सम्यक् सरूप-दृष्टि ज्ञानयुत होइ दृष्टि,
चारित यथासरूप मोख पंथ साँचा है।
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१. श्री प्रवचनप्रसाद नं. १८३, दिनांक २१-४-५२, पृष्ठ १४६१