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गाथा - ९९
विगत गाथा में कहा है कि ह्न कौन द्रव्य सक्रिय हैं तथा कौन निष्क्रिय हैं ? प्रस्तुत गाथा में इन्द्रियों के मूर्त-अमूर्त विषयों की चर्चा की है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
जे खलु इंदियज्झा विसया जीवेहिं होंति ते मुत्ता । सेसं हवदि अमुत्तं चित्तं उभयं समादियादि ।। ९९ ।। (हरिगीत)
हैं जीव के जो विषय इन्द्रिय ग्राह्य वे सब मूर्त हैं।
शेष सब अमूर्त हैं मन जानता है उभय को ||१९||
जो पदार्थ जीवों के इन्द्रिय ग्राह्य विषय हैं, वे मूर्त हैं और शेष पदार्थ समूह अमूर्त हैं। चित्त उन दोनों को ग्रहण करता है, जानता है।
आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न “यह मूर्त और अमूर्त के लक्षण का कथन है। इस लोक में जीवों द्वारा स्पर्शनइन्द्रिय, रसनाइन्द्रिय, घ्राणइन्द्रिय और चक्षुइन्द्रिय द्वारा उनके विषय-स्पर्श, रस, गंध और वर्ण स्वभाव वाले पदार्थ ग्रहण होते हैं और श्रोत इन्द्रिय द्वारा वही पदार्थ शब्दाकार परिणत होकर ग्रहण होते हैं। वे पदार्थ कदाचित् स्थूल या सूक्ष्मपने को प्राप्त होते हुए तथा कदाचित् परमाणुपने को प्राप्त होते हुए इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होते हों या न होते हों, किन्तु इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होने की योग्यता का सदैव सद्भाव होने से मूर्त कहलाते हैं।
स्पर्श-रस- गन्ध-वर्ण का अभाव जिसका स्वभाव है ह्र ऐसा शेष अन्य समस्त पदार्थ समूह इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होने की योग्यता के अभाव के कारण 'अमूर्त' कहलाता है।
इस गाथा के भाव को कवि हीरानन्दजी पद्य में इसप्रकार कहते हैं ह्र
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चूलिका (गाथा ९७ से ९९ )
( सवैया इकतीसा ) रसना परस घ्राण चच्छु कान इन्द्री जान,
इन जोगि विषै हैं ते मूरत बखाने हैं। सेष अरथ पाचौं मैं वरनादि गुन नाहिं,
तातैं एक मूरतीक ग्रन्थनि मैं जानें है ।। मनसा विचार जोगि मूरत-अमूरत है,
श्रुतज्ञान साधन तैं अर्थ पुंज माने हैं। ऐसा जिनराज वानी का है विसतार सारा,
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आप पर न्यारा जानि मिथ्याभाव माने हैं। । ४३० ।। जिन्हें इन्द्रियाँ ग्रहण कर सकती हैं, वे मूर्तिक पुद्गल हैं। शेष पाँच द्रव्य अमूर्तिक हैं। मन मूर्तिक व अमूर्तिक दोनों को ग्रहण करता है।
गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ने भावार्थ में कहा है कि ह्न “इस लोक में जीव स्पर्श-रस- गन्ध-वर्ण वाले पदार्थों को स्पर्शन- रसना घ्राण चक्षु
इन चार भावइन्द्रियों द्वारा जानता है, द्रव्य इन्द्रियाँ उसमें निमित्त होती हैं। वे द्रव्येन्द्रियाँ सब पुद्गल हैं, मूर्तिक हैं। इन्द्रियाँ पर पदार्थों को ग्रहण करती नहीं हैं तथा छोड़ती भी नहीं है।
यद्यपि कोई सूक्ष्मस्कन्ध या परमाणु इन्द्रियों द्वारा जानने में नहीं आते, तो भी इन पुद्गलों में ऐसी शक्ति है कि जब वे स्थूलता को धारण करते हैं तब इन्द्रिय गम्य होते हैं।
आत्मा तथा धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य आकाश व काल भी अतीन्द्रिय हैं। ये इन्द्रिय ग्राह्य नहीं हैं। हाँ, भाव मन के क्षयोपशम और द्रव्यमन के निमित्त से मूर्तिक व अमूर्तिक ह्न दोनों प्रकार के पदार्थों को जान सकते हैं।
वर्तमान में जो स्थूल मूर्त स्कंध इन्द्रियों द्वारा जानने में आते हैं, वे विभाव पर्यायें हैं, वे संयोगी पदार्थ हैं। वे सब व्यवहार नय के विषय हैं। निश्चय द्रव्य तो मूल परमाणु है, वह भी अतीन्द्रिय है। "
इसप्रकार गाथा ९९ के आधार पर मूर्त-अमूर्त द्रव्यों का वर्णन हुआ। इसप्रकार चूलिका समाप्त हुई ।
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७८, पृष्ठ- १४२२, दिनांक १९-४-५२