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पञ्चास्तिकाय परिशीलन समय के तीन भेद हैं ह्न शब्दसमय, ज्ञानसमय और अर्थसमय। आत्मा यह शब्द तो 'शब्दसमय', आत्मा संबंधी अपना ज्ञान 'ज्ञानसमय' और आत्मवस्तु 'अर्थसमय' है। इसीप्रकार पंचास्तिकाय शब्द तो 'शब्दसमय', पंचास्तिकायसंबंधी अपना ज्ञान 'ज्ञानसमय' और पंचास्तिकायरूप वस्तु ‘अर्थसमय' है।
तीनों स्वतंत्र हैं। शब्द में ज्ञान तथा पदार्थ नहीं हैं। ज्ञान में शब्द तथा पदार्थ नहीं हैं और अर्थ में ज्ञान तथा शब्द नहीं हैं। 'पंचास्तिकाय' - ऐसा शब्द बोला, उसमें पंचास्तिकाय का ज्ञान नहीं है और उसमें पंचास्तिकाय पदार्थ भी नहीं हैं। इसीप्रकार पंचास्तिकाय में से एक जीव को छोड़कर अन्य पदार्थों में शब्द नहीं हैं, ज्ञान में शब्द तथा पदार्थ नहीं हैं; परन्तु शब्दों का और पदार्थों का ज्ञान आ जाता है।
इन तीनों भेदों से पंचास्तिकाय की राग-द्वेष रहित यथार्थ अक्षर, पद और वाक्य की रचना है, उसे द्रव्यश्रुतरूप शब्द समय कहते हैं। इस पंचास्तिकाय में अर्थात् द्रव्यश्रुतरूप शब्दों में कहीं भी राग-द्वेष स्थापित हो ऐसा कथन नहीं है। 'अपना स्वभाव राग-द्वेष रहित है' ह्र जो जीव ऐसा निर्णय करके सम्यग्ज्ञान प्रगट करता है, वह जीव द्रव्य आगम का कथन कर सकता है।
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वीतरागी शब्द राग-द्वेष का ज्ञान कराते हैं; परन्तु वे राग-द्वेष की स्थापना नहीं करते हैं। इसप्रकार शब्दसमय भी वीतरागता में निमित्त होता है।
जो शब्द पंचास्तिकाय की राग-द्वेष रहित यथार्थ अक्षर, पद और वाक्य के रूप में द्रव्यश्रुतरूप की रचना करते हैं । शब्दसमय कहते हैं। शब्द बोला इसमें 'जी' और 'व' ये दो अक्षर हैं। 'जीव' यह पद है और 'जीव अनादि-अनन्त है' यह वाक्य है। इसप्रकार अक्षर, पद और वाक्य की रचना को द्रव्यश्रुत कहा है।
'राग-द्वेष रहित' ऐसा जो शब्द कहा है, उसके ऊपर खास वजन है।
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पंचास्तिकाय ही समय है (गाथा १ से २६ )
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जो शास्त्र राग-द्वेष रहित होने के लिए लिखा जाता है, वही यथार्थ शास्त्र है और वही शब्दसमय है।
जिसमें वीतरागता की बात आती है, जो अपने आत्मा को लाभ का उपाय बताता है; जो यह बताता है कि सभी आत्मायें और परमाणु स्वतंत्र हैं, उन सभी के द्रव्य, गुण, पर्याय भी स्वतंत्र हैं; कर्म राग नहीं कराता है; परन्तु जीव जब स्वयं राग करता है तो राग होता है और स्वभाव के आश्रय से मिथ्यात्व-राग-द्वेष नष्ट होकर धर्म होता है इत्यादि रूप से यथार्थ लेखन जिसमें होता है, उसे 'शब्दसमय' कहते हैं। द्रव्यश्रुत कहो, द्रव्य आगम कहो, शब्दसमय कहो सब एक ही है। प्रश्न : शब्दपर्याय तो जड़ है; उसे रागरहितपना कैसे कहा ? उत्तर :- " यद्यपि वह पुद्गल की पर्याय है; परन्तु शब्दसमय द्वारा जो कहा है, उसका भाव समझकर जीव अपने में मिथ्यात्वरहित यथार्थ ज्ञान करता है, वही शब्द का राग रहितपना है। जैसा कि शब्दसमय में लिखा आता है कि 'जीव अपने आश्रय से मिथ्यात्व, राग और द्वेष का नाश कर सकता है।' इस कथन का यथार्थ भाव समझकर धर्मी जीव अपने आश्रय से मिथ्यात्व, राग और द्वेष का नाश करता है और ज्ञानसमय अपने में प्रगट करता है। निमित्त के, व्यवहार के कथन आते हैं तो उन्हें उपचार कथन समझकर वीतरागता निकालता है अर्थात् जैसा शब्दसमय में भाव कहा था, वैसा ही वह ज्ञान करता है; अतः शब्दसमय मिथ्यात्व, राग और द्वेष का नाश करता है। जिन शब्दों द्वारा ऐसे राग-द्वेष के नाश होने का ऐसा कथन किया जाता है; वही शब्दसमय का राग रहितपना है।
पंचास्तिकाय में पाँच अस्तिकाय ह्न जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश का वर्णन है। वे सभी द्रव्य स्वतंत्र हैं, उनको कहनेवाले शब्दों को शब्दसमय कहते हैं। यहाँ उन शब्द समयवाले शब्दों की ओर का लक्ष छोड़ने के लिये तथा उनके द्वारा कहे गये अर्थसमय पर ध्यान केन्द्रित करने की प्रेरणा देते हैं।