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पञ्चास्तिकाय परिशीलन यातें गति-थान-हेतु नभको न खेतु सो है,
एक अवकाश तामैं देसदेस चनिए। ऐसा उपदेस जिनराजकै समाजविणे, जथाभेद जानसेती मिथ्यामोह हनिए।।४१६ ।।
(दोहा) धर्म-अधर्मविर्षे लसै, गति-थिति-हेतु कहान ।
और दर्व का गुन नहीं, यहु जिनकथन प्रवान ।।४१७ ।। उपर्युक्त दोनों दोहों में यह कहा गया है कि ह्न धर्मद्रव्य व अधर्म द्रव्य क्रमश: गति व स्थिति में कारण है तथा आकाश द्रव्य में गति-स्थिति में निमित्त बनने का कोई गुण नहीं है।
इस गाथा के प्रसंग में गुरुदेव श्री कानजीस्वामी भी जिनेन्द्र भगवान की साक्षीपूर्वक कहते हैं कि ह्न “भगवान भव्यजीवों को संबोधित करते हुए यह बात सुनाते हैं कि हे भव्य जीवो! जैनदर्शन वस्तुदर्शन है, वह स्वभाव स्वरूप है। आकाश अनन्त द्रव्यों को अवगाहन देने के स्वभाववाला है। धर्मद्रव्य अनन्त जीवों को एवं अनन्तानन्त पुद्गलों को गति में निमित्त होता है। अधर्म अनन्त जीवों व पुद्गलों को गतिपूर्वक स्थिति में निमित्त होता है। काल इन्हीं सबके परिणाम में निमित्त होता है। छहों द्रव्य पूर्ण स्वतंत्र हैं। जो ऐसा ज्ञान करके आत्मा को पर से विभक्तपना एवं स्व से एकत्वपना सिद्ध करता है, वह ज्ञानी है।
जो जीव किसी भी एक द्रव्य को न माने अथवा अन्यथा माने तो वह पर से विभक्त एवं स्व में एकत्व नहीं मानता। जो आगम के अनुकूल नहीं है।"
इसप्रकार गाथा में कहा है कि गति-स्थिति में निमित्त बनने का स्वभाव धर्म व अधर्म द्रव्य है, आकाश में नहीं। यह स्पष्ट किया है। .
गाथा-९६ विगत गाथा में जीव व पुद्गलों की गति-स्थिति में धर्म व अधर्म द्रव्य को निमित्त कारणपना बताया है तथा यह भी कहा है इनके सिवाय आकाश द्रव्य में गति-स्थिति में निमित्त होने का गुण ही नहीं हैं।
अब प्रस्तुत गाथा में आकाश द्रव्य में गति-स्थिति हेतुत्व का सहेतु निषेध करते हुए इस प्रकरण का उपसंहार करते हैं।
मूल गाथा इसप्रकार है ह्न धम्माधम्मागासा अपुधब्भूदा समाणपरिमाणा। पुधगुवलद्धिविसेसा करेंति एगत्तमण्णत्तं ।।१६।।
(हरिगीत) धर्माधर्म अर लोक का अवगाह से एकत्व है।
अर पृथक् पृथक् अस्तित्व से अन्यत्व है भिन्नत्व है||९६|| धर्म, अधर्म और आकाश समान परिणाम वाले अपृथक्भूत होने से तथा पृथक् उपलब्ध होने से एकत्व तथा अन्यत्व को करते हैं।
टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि ह्न यहाँ धर्म, अधर्म और लोकाकाश का अवगाह की अपेक्षा एकत्व होने पर भी वस्तुरूप से अन्यत्व कहा गया है।
उक्त धर्म, अधर्म व लोकाकाश द्रव्य समान परिमाण वाले होने से एकक्षेत्रावगाह अर्थात् एक साथ रहने मात्र से ही एकत्ववाले हैं। वस्तुतः तो व्यवहार से गति हेतुत्व, स्थिति हेतुत्व और अवगाहन हेतुत्वरूप तथा निश्चय से विभक्त प्रदेशत्व रूप पृथक् उपलब्ध होने की मुख्यता से वे अन्यत्व वाले ही हैं।
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१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७६, पृष्ठ-१४०८, दिनांक १६-४-५२ के आगे