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पञ्चास्तिकाय परिशीलन (दोहा) लोक थकी बाहिर परा, सकल अलोकाकास ।
अगम अपार अनंत है, निज गुन-परजै-वास ।।४०५ ।। निम्न पद्यों में हीरानन्दजी कहते हैं कि ह्न जीव असंख्य प्रदेशी हैं एवं लोक प्रमाण हैं, पुद्गल अनन्त हैं, वे भी लोक प्रमाण ही हैं। धर्म व अधर्म दोनों द्रव्य भी असंख्य प्रदेशी हैं तथा कालाणु लोक प्रमाण ही हैं। एक मात्र अलोकाकाश ऐसा है जो लोक में भी है और लोक बाहर अलोक में भी है।
इसी गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र “आकाश एक अखण्ड द्रव्य होते हुए भी लोक व अलोक के भेद दो प्रकार कहा गया है। आकाश के जितने भाग में जीवादि छहों द्रव्य हैं, वह लोकाकाश, शेष जहाँ केवल आकाश ही आकाश है वह अलोकाकाश है। जिस भाग में छः द्रव्य हैं, वह असंख्य प्रदेशी तथा शेष आकाश अनन्त प्रदेशी हैं।
प्रश्न :ह्न असंख्य प्रदेशी लोकाकास में अनन्त जीव एवं अनन्तानंत पुद्गलादि द्रव्य कैसे समाते होंगे?
उत्तर :- असंख्यप्रदेशी आकाश में सहज अवगाहना स्वभाव है, इस कारण अनन्त जीवादि समा जाते हैं वस्तु का स्वभाव वचन गम्य नहीं है। जैसे ह्न एक घर में अनेक दीपों का प्रकाश जमा जाता है, उसी प्रकार
आकाश में ऐसी अवगाहन शक्ति है।। __इसी शक्ति से अनन्त चेतन व जड़ पदार्थों को एक ही समय अवकास दे देता है। ऐसी भी क्षमता है कि ह्न अनन्त परमाणु सूक्ष्म रूप से परिणमन करें तो एक प्रदेश में समा जाते हैं।"
इसप्रकार इस गाथा में आकाश द्रव्य की अवगाहन शक्ति की चर्चा की। १. श्रीसद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७६, गाथा-९१, पृष्ठ-१३९९
गाथा-९२ विगत गाथा में कहा गया है कि ह्न आकाश के अतिरिक्त शेष पाँच द्रव्य मर्यादित स्वभाव के कारण लोक से अनन्य ही हैं। तथा आकाश अनन्त होने के कारण अनन्य भी हैं और अन्य भी हैं।
अब इस गाथा में कहते हैं कि ह्न यदि आप आकाश को गतिस्थिति में हेतु मानेंगे तो सिद्धों को लोकान्त में ही ठहरने का अभाव सिद्ध होगा। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
आगासं अवगासं गमणट्ठिदिकारणेहिं देदि जदि। उड्ढंगदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठन्ति किध तत्थ।।१२।।
(हरिगीत) अवकाश हेतु नभ यदि गति-थिति कारण भी बने। तो ऊर्ध्वगामी आत्मा लोकान्त में जा क्यों रुके||१२|| यदि आकाश अवकास का हेतु भी हो एवं गति-स्थिति का हेतु भी हो तो ऊर्द्धगति करनेवाले सिद्ध लोकाकाश के अन्त में क्यों स्थिर हों? उत्तर में कहा है कि ह्र जिनवरों ने सिद्धों को लोकाग्र में स्थिति कहा है। इसलिए सिद्धों की गति अलोकाकाश में नहीं होती।
टीकाकार आचार्य अमृत कहते हैं कि ह्न यह जीवादि द्रव्यों की स्थिति-सम्बन्धी कथन है। लोक और अलोक का विभाग करनेवाले लोक में स्थित धर्म तथा अधर्म द्रव्य को ही गति व स्थिति में हेतु माना गया है। अतः सिद्ध लोकाग्र में ही स्थिर होते हैं। इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं कि ह्र
(दोहा) ज्यौं अवकास अकास-गुन, त्यौं जग गतिथिति होइ। सिद्ध उर्द्धगति सहजतें, सिवमैं रहै न कोइ ।।४०६ ।।
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