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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
गमन करते हुए जीवों व पुद्गलों के गमन में मात्र उदासीन निमित्त है। इसीप्रकार अधर्म भी गतिपूर्वक स्थिति करते हुए जीवों व पुद्गलों की स्थिति में मात्र उदासीन निमित्त होता है।
आगे दृष्टान्त देते हैं कि ह्न जो जीव अपने आत्मा के आश्रय से सिद्धदशा प्रगट करता है तो तीर्थंकर प्रकृति उत्तम संहनन वगैरह निमित्त कहे जाते हैं, उसीप्रकार धर्मद्रव्य स्वयं गति करते हुए जीव व पुद्गलों की गति में निमित्त होते हैं। तथा जो जीव शुद्धात्मा में स्थिरता करते हैं, उन्हें पंचपरमेष्ठी का स्मरण निमित्त कहा जाता है। जो ऐसा विचार करता है कि ह्नये पाँचों आत्मा में हैं, जड़ में नहीं। उनके निमित्त से ऐसा भान करे कि ऐसी योग्यता मुझ में भी है, मैं परिपूर्ण आत्मा हूँ, जो ऐसा ज्ञान कर स्वभाव में स्थिरता करता है, उसे पंच परमेष्ठी का विकल्प निमित्त कहलाता है। "
इस दृष्टान्त के अनुसार जो जीव व पुद्गल अपने कारण गतिपूर्वक स्थिति करते हैं, उसे अधर्मद्रव्य का निमित्त कहलाता है।
इसप्रकार विविध दृष्टान्तों से धर्मद्रव्य एवं अधर्मद्रव्य का खुलासा हुआ ।
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७४, दिनांक १४-४-५२, पृष्ठ- १३८८
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गाथा - ८९
पिछली गाथा में धर्मद्रव्य एवं अधर्म को मात्र उदासी निमित्त निरूपित किया गया है।
अब प्रस्तुत गाथा में धर्म और अधर्मद्रव्य की उदासीनता के सम्बन्ध हेतु कहा जा रहा है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
विज्जदि जेसिं गमणं ठाण पुण तेसिमेव संभवदि ।
ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति । । ८९ । । (हरिगीत)
जिनका होता गमन है, होता उन्हीं का ठहरना ।
तो सिद्ध होता है कि द्रव्य, चलते-ठहरते स्वयं से ॥ ८९ ॥ जिनकी द्रव्यों की गति होती है, उन्हीं की फिर स्थिति होती है तथा वे सभी जीव व पुद्गल अपने परिणामों से गति व स्थिति करते हैं।
इसके स्पष्टीकरण में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि ह्र वास्तव में अर्थात् निश्चय से धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलों को कभी गति में हेतु नहीं होता। अधर्मद्रव्य भी कभी स्थिति में मुख्य हेतु नहीं होता। यदि वह हेतु हों तो जिन्हें गति हो उन्हें गतिशील ही रहना चाहिए, उनकी स्थिति नहीं होना चाहिए और जिन्हें स्थिति हो, उन्हें स्थिति ही रहना चाहिए, किन्तु एक पदार्थ को ही गति व स्थिति दोनों देखने में आते हैं, इसलिए कह सकते हैं कि धर्मद्रव्य व अधर्म द्रव्य मुख्य हेतु नहीं हैं; किन्तु जब जीव व पुद्गल अपनी तत्समय की योग्यता से गमन करें या स्थित रहें तब धर्म द्रव्य व अधर्म द्रव्यगति एवं स्थिति में निमित्त मात्र होते हैं। इसलिए उन्हें व्यवहारनय से उदासीन कारण कहा जाता है।
कवि हीरानन्दजी अपनी काव्य की भाषा में कहते हैं ( सवैया इकतीसा ) धरमाधरम दौनौ जी तौ गति थिति हेतु, मुख्यरूपरूप लसै तौ तौ बड़ाई विरोध है ।