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पञ्चास्तिकाय परिशीलन चलाने का आरोप आता है, क्योंकि मछली की स्वयं की योग्यता ही ऐसी है कि वह पानी में ही चल सकती है। इसीप्रकार जीवों व पुद्गलों का ऐसा ही स्वभाव या योग्यता कि वह धर्मद्रव्य के निमित्त हुए बिना गमन नहीं कर सकता । धर्मद्रव्य तो उदासीन निमित्त है, अतः प्रेरणा करके नहीं चलाता।
यहाँ दृष्टान्त में कहा है कि ह्र सिद्धदशा प्राप्त करने में भव्य जीव की लायकात अर्थात् शुद्धात्मा की अनुभूति उपादान कारण है। यहाँ वर्तमान पर्याय क्षणिक उपादान कारण है। गुण तो त्रिकाल हैं। उस समय मनुष्य देह, उत्तम संहनन, तीर्थंकर प्रकृति निमित्त कारण कहे जाते हैं। __ दूसरा लोकोत्तर दृष्टान्त देते हैं ह्र कहते हैं कि भव्य तथा अभव्य चारगति में परिभ्रमण करते हैं, उनके अपने-अपने शुभाशुभभाव उपादानकारण हैं। तथा निमित्त कारण का बाह्यलिंग, दान-पूजा के समय होनेवाली शारीरिक क्रिया तथा बाहरी शुभ अनुष्ठान, मन्दिर, समवशरण, मानस्तंभ बहिरंग सहकारी निमित्त कारण कहलाते हैं।
पण्डित बनारसीदास ने कहा है कि कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का प्रेरक नहीं है। इसप्रकार जीव व पुद्गल के क्षेत्रान्तर होने में धर्मास्तिकाय का निमित्तपना दृष्टान्तों द्वारा समझाया है।"
सम्पूर्ण कथन का सारांश यह है कि धर्म द्रव्य स्वयं गमन करते हुए जीव व पुद्गलों के गमन में उदासीन रूप से निमित्त बनता है। धर्मद्रव्य उनके साथ स्वयं भी गमन भी नहीं करता। जिस तरह रेल (पटरी) रेलगाड़ी के चलाने में निमित्त तो बनती है; परन्तु रेलगाड़ी के साथ स्वयं चलती नहीं है।
गाथा-८६ पिछली गाथा में धर्मद्रव्य का स्वरूप समझाया गया है।
अब प्रस्तुत गाथा में अधर्मद्रव्य का स्वरूप कहते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वमधमक्खं। ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव।।८६।।
(हरिगीत) धरम नामक द्रव्यवत ही अधर्म नामक द्रव्य है। स्थिति क्रिया से युक्त को यह स्थितिकरण में निमित्त है||८६|| जिसप्रकार धर्मद्रव्य है, उसीप्रकार अधर्म द्रव्य भी जानो; परन्तु जो द्रव्य गमनपूर्वक स्वयं ठहरते हुए जीवों व पुद्गलों को पृथ्वी की भाँति ठहरने में निमित्त होता है वह अधर्म द्रव्य है। ___ आचार्य अमृतचन्द्र उक्त बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि अधर्मास्ति काय गमन पूर्वक स्वयं ठहरते हुए जीवों एवं पुद्गलों को ठहराता है, किन्तु यह प्रेरणा करके नहीं ठहराता, बल्कि यह तो मात्र उदासीन रूप से निमित्त बनता है। कवि हीरानन्दजी अपनी काव्य की भाषा में कहते हैं कि ह्र
(दोहा) जैसा धरम द्रव्य लसै, तैसा जान अधर्म । थितिकिरिया कारण भला पृथिवी वत् जिनधर्म ।।३७८ ।।
(सवैया इकतीसा) जैसा धर्म दर्व कहा अरस, अरूप गंध,
सवद फास बिना ही लोक अवगाही है। सारा लोक व्यापी विस्तार लोकमानलसै,
असंख्यात परदेस एका निवाही है।
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१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७४, दिनांक १३-४-५२, पृष्ठ-१६६९