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पञ्चास्तिकाय परिशीलन सुख को प्राप्त करता है। इसकारण से द्रव्यागमरूप शब्दसमय नमस्कार करने तथा व्याख्यान करने योग्य है। कवि हीरानन्दजी काव्य की भाषा में कहते हैं, जो इसप्रकार है ह्र
(दोहा) वीतराग मुख-जनित है, अरथरूप गतिनास । मोख-हेति मुनि नमन करि, करत समय परकास।।२८।।
(सवैया इकतीसा) वीतराग सर्वग्यानी उदै पाय खिरै बानी,
कालजोग पाय जीव सब्दरूप गहै है। पंच अस्तिकाय अर्थ अभिधेय आप पर,
जथातथ्य जानि जानि सिवरूप लहै है।। वीतराग पावै चारौं गतिमैं न आवै सोई,
निरवान पद परवान सदा रहै है। तातें भेदग्यानी जिनवानीकौं त्रिकाल नमैं,
समय नाम व्याख्याको साखीभूत कहै है ।।२९।। उक्त छन्दों में कहा है कि - "वीतराग सर्वज्ञ के मुख से उत्पन्न जो पंचास्तिकाय के रूप में वाणी खिरती है उसे जीव काललब्धि के योग से शब्द रूप में ग्रहण करते हैं, वे उसके यथार्थ स्वरूप को जानकर, श्रद्धानकर एवं तद्रूप परिणमन कर मुक्ति प्राप्त करते हैं। इसीलिए यहाँ जिनवाणी को त्रिकाल नमस्कार करते हैं तथा समय नामक व्याख्या के रूप में वर्णन करते हैं।
इस दूसरी गाथा के स्पष्टीकरण में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी ने वस्तु की स्वतंत्रता और निमित्त-नैमित्तिक सहज संबंध को स्पष्ट करते हुए गाथा का जो अभिप्राय खोला है, वह ध्यान देने योग्य है । वे कहते हैं -
षड्दव्य प्रतिज्ञा वचन (गाथा १ से २६)
“आत्मा वाणी का कर्ता नहीं है; पर निमित्त का ज्ञान कराने के लिये उसे वाणी का कर्ता उपचार से कहा जाता है। आत्मा वाणी को कर ही नहीं सकता है; इसीप्रकार वाणी से आत्मा समझता भी नहीं है; फिर भी यह वाक्य यहाँ जो लिखा है, वह निमित्त का ज्ञान कराने के लिए लिखा है। भाषा तो भाषा के कारण से निकलती है। 'मैं कहूँगा' ह्र ये शब्द, शब्द के कारण से निकलते हैं; परन्तु पंचास्तिकाय कहने में निमित्त कौन है ? ह्र इसका यहाँ ज्ञान कराते हैं तथा यह जो कहते हैं कि 'इस ग्रंथ को तुम जानो' ह्न वहाँ भी जिसकी समझने की योग्यता होगी, वही समझेगा; दूसरा जीव समझा दे ह्न ऐसा नहीं है; फिर भी 'सुनो' ऐसा कहने का हेतु मात्र इतना ही है कि सामनेवाला जीव समझने का पात्र है, पंचास्तिकाय समझने लायक है।
यद्यपि वाणी के उपादानकर्ता जड़ परमाणु स्वयं हैं; तथापि वहाँ आचार्यदेव को विकल्प था; अत: आचार्यदेव को उपचार से वाणी का निमित्तकर्ता कहा जाता है। निमित्तकर्ता का अर्थ जड़ की पर्याय के होने में कुछ मदद करना नहीं है। वाणी जड़ है, उसे आत्मा बोल नहीं सकता है। उस समय आचार्य भगवान को जो विकल्प उत्पन्न हुआ; उसका ज्ञान कराया है।
आचार्य कुन्दकुन्ददेव श्रमण अर्थात् सर्वज्ञ वीतरागदेव की दिव्यवाणी से उत्पन्न हुये वचनों को मस्तक से प्रणाम करके कहते हैं; क्योंकि सर्वज्ञ के वचन ही प्रमाणभूत हैं। अतः उनके आगम को ही नमस्कार करना योग्य है।
देखो! सर्वज्ञ भगवान की वाणी को भी सर्वज्ञ के समान कहा है, उनकी वाणी आत्मा के सभी प्रदेशों से निकलती है। कंठ, होंठ इत्यादि सभी निमित्तों से रहित निकलती है; क्योंकि वाणी के निकलते समय
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