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गाथा - ६७
विगत गाथा में कहा गया है कि ह्न जिसप्रकार पुद्गल द्रव्यों की अनेक प्रकार की स्कन्ध रचना पर से किए बिना ही होती दिखाई देती है, उसीप्रकार कर्मों की बहु प्रकरता भी पर से अकृत है।
प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्न कर्मों की विचित्रता ( बहु प्रकारता ) अन्य द्रव्यों से नहीं की जाती। मूल गाथा इसप्रकार हैह्र
जीवा पोग्गलकाया अण्णण्णोगाढगहणपडिबद्धा । काले विजुज्जमाणा सुहदुक्खं देंति भुञ्जन्ति । । ६७ ।। (हरिगीत)
जीव अर पुद्गलकरम, पय-नीरवत प्रतिबद्ध हैं। करम फल देते उदय में जीव सुख-दुख भोगते॥६७॥ जीव और पुद्गलकाय परस्पर अवगाह्य से एक-दूसरे से बद्ध हैं, काल से पृथक् होने पर कर्म सुख-दुःख देते हैं एवं जीव भोगते हैं।
आचार्यश्री अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न “निश्चय से जीव और कर्म को निज-निज रूप का ही कर्तृत्व है, तथापि व्यवहार से ऐसा कहा जाता है कि ह्न 'जीव को कर्मफल देते हैं और जीव कर्मफल को भोगता है, ऐसा कहना अनुचित नहीं है, क्योंकि यह कथन परस्पर विरोधी नहीं है।'
जीव में मोह राग-द्वेष की स्निग्धता ( चिकनाई) के कारण तथा पुद्गल स्कन्ध स्वभाव से ही स्निग्ध होने के कारण परस्पर बद्धरूप से रहते हैं। जब वे परस्पर पृथक् होते हैं तब उदय पाकर खिर जाने वाले पुद्गल कर्म सुख - दुःख रूप आत्मपरिणामों के निमित्त मात्र होने की अपेक्षा निश्चय से और इष्टाइष्ट विषयों के निमित्त मात्र होने की अपेक्षा
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जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३)
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व्यवहार से सुख-दुःखरूप फल देते हैं तथा जीव निमित्तमात्रभूत द्रव्यकर्म से निष्पन्न होनेवाले सुख-दुःख रूप आत्मपरिणमों के भोक्ता होने की अपेक्षा निश्चय से तथा इष्टानिष्ट विषयों के भोक्ता होने की अपेक्षा व्यवहार से सुख-दुःखरूप फल भोगते हैं।”
इसी गाथा में कवि हीरानन्दजी काव्य की भाषा में कहते हैं ह्र
( दोहा )
जीव और पुद्गल दुहू, आपस मैं मिलि एक । कालपाय बिछुरै दुहू, दाता भुगता टेक ।। ३१६ ।। ( सवैया इकतीसा )
मोह-राग-द्वेष तीनों जीव चिकनाई ए है,
नेह रूक्ष चिकनाई अनु के अनूप है । बंध की अवस्था मैं दोनों मिलि एकमेक,
अवगाहकारी तातैं बंधे अंधकूप है ।। थिति पूरी होतनासै भासै सुख-दुःखरूप,
निश्चै- विवहार देसै अनु का स्वरूप है। जीव हिचे सुभाव विवहारी विषैभाव,
दोनों भाव भोगी लसै जाने सोई भूप है ।। ३१७ ।। कवि के कहने का अर्थ यह है कि ह्न जीव और पुद्गल दोनों परस्पर में मिलकर एक हो जाते हैं तथा समय पाकर बिछुड़ते हैं तथा सुख-दुःख देते भी हैं और भोगते भी हैं, अर्थात् पुद्गलकर्म दुःख देते हैं और जीव भोगते हैं।
मोह-राग-द्वेष जीव की चिकनाई है तथा ह्र स्नेह रूक्ष अणु की चिकनाई है, बंध की अवस्था में दोनों मिलकर एक हो जाते हैं, बन्ध को प्राप्त हो जाते हैं। जब ये स्थिति पाकर परस्पर पृथक् होते हैं तब कर्म के रूप में पुद्गल स्कंध फल देते हैं और जीव भोगते हैं। जो दोनों के ज्ञाता रहते हैं वे ही ज्ञानी हैं, चैतन्यराज हैं।"