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पञ्चास्तिकाय परिशीलन अज्ञानी को ऐसी वस्तु की स्वतंत्रता की खबर नहीं है। अतः वह ऐसा मानता है कि ह्र मेरे कारण शरीर चलता है एवं शरीर से आत्मा में कार्य होते हैं? उसे यह भी खबर नहीं है कि ह्र जीव में जो रागादि भाव होते हैं, उनका निमित्त पाकर कार्माण वर्गणायें स्वयं अपनी उपादान शक्ति से आठ कर्म रूप होते हैं तथा वे परमाणु उन कर्मों के कर्ता होती हैं। जीव उन कर्मों का कर्ता नहीं है। कर्म अपने स्वयं के कारण कर्म रूप परिणमते हैं। वे अपने में उपादान कारण हैं तथा जीव के राग-द्वेष उनमें निमित्त होते हैं।”
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि ह्र जब जीव अपनी तत्समय की योग्यता से रागादि अशुद्ध भाव करता है, उस समय वहीं पर स्थित कार्माण वर्गणायें अपनी स्वतंत्र योग्यता से कर्मरूप होकर परिणमित होती हैं। ह्र दोनों में ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक सहज सम्बन्ध है।
गाथा-६६ विगत गाथा में कहा है कि ह्र आत्मा जब मोह-राग-द्वेषरूप भाव करता है तब वहीं स्थित पुद्गल वर्गणायें अपने स्वभाव से जीव के साथ एक क्षेत्रावगाहरूप कर्मभाव को प्राप्त होते हैं।
अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्र कर्मों की विचित्रता (बहु प्रकारपना) अन्य द्वारा नहीं की जाती। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
जह पोग्गलदव्वाणं बहुप्पयारेहिं खंधणिव्वत्ती। अकदा परेहिं दिट्ठा तह कम्माणं वियाणाहि ।।६।।
(हरिगीत) ज्यों स्कन्ध रचना पुद्गलों की अन्य से होती नहीं। त्यों करम की भी विविधता परकृत कभी होती नहीं ॥६६|| जिसप्रकार पुद्गल द्रव्यों की अनेक प्रकार की स्कंधरचना पर के किए बिना ही होती दिखाई देती है, उसीप्रकार कर्मों की बहु प्रकार की संरचना पर से अकृत ही होती है।
समयव्याख्या टीका में आचार्य श्री अमृतचन्द्रजी कहते हैं कि ह्र "कर्मों की विचित्रता अन्य द्वारा नहीं की जाती ह ऐसा यहाँ कहा है।
जिसप्रकार चन्द्रसूर्य प्रकाश की उपलब्धि होने पर संध्या, बादल, इन्द्रधनुष आदि अनेक प्रकार के पुद्गल स्कन्धों के भेद अन्य कर्ता की अपेक्षा बिना ही उत्पन्न होते हैं, उसीप्रकार अपने योग्य जीव परिणाम की उपलब्धि होने पर ज्ञानावरणादिक अनेक प्रकार के कर्म भी अन्य कर्ता की अपेक्षा बिना ही उत्पन्न होते हैं।
तात्पर्य यह है कि ह्र कर्मों की विविध-प्रकृति, प्रदेश स्थिति अनुभाग रूप विचित्रता भी जीवकृत नहीं है, पुद्गलकृत ही हैं ।।६६ ।।
यद्यपि उस सरला की सहेली ने निजानन्द की नाराजगी के भय से यह बात सरला के मुँह पर कहने की हिम्मत तो नहीं की; फिर भी यह बात किसी तरह सरला के कान में पड़ ही गई। इसी से तो लोग कहते हैं कि - 'दीवारों के भी कान होते हैं। अतः ऐसी बात कहना ही नहीं चाहिए, जिस बात को किसी से छिपाने का विकल्प हो और प्रगट हो जाने का भय हो।' जो भी बातें कहो, वे तौल-तौल कर कहो, ऐसा समझ कर कहो, जिन्हें सारा जगत जाने तो भी आपको कोई विकल्प न हो, भय न हो; बल्कि जितने अधिक लोग जाने, उतनी ही अधिक प्रसन्नता हो।
- सुखी जीवन, पृष्ठ-३१
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१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद, नं. १५६, गाथा-६५, दि. २६-३-५२, पृष्ठ-१२४० से ४३