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गाथा - ६१
विगत गाथा में कहा गया है कि ह्न जीव के राग-द्वेष आदि भाव कर्मों का निमित्त द्रव्यकर्म है और द्रव्यकर्म भावकर्मपूर्वक होते हैं ह्र ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक संबंध है, यद्यपि ये निमित्त एक-दूसरे के कर्त्ता नहीं है, तथापि जब उपादान में स्वयं की योग्यता से कार्य होता है, तब ये निमित्त भी होते ही हैं। इनका ऐसा ही सहज निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध है ।
अब इस ६१वीं गाथा में कहते हैं कि ह्र अपने भाव को कर्त्ता हुआ आत्मा पुद्गलकर्मों का कर्ता नहीं है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्न
कुव्वं सगं सहावं अत्ता कत्ता सगस्स भावस्स । ण हि पोग्गलकम्माणं इदि जिणवयणं मुणेदव्वं । । ६१ ।। (हरिगीत)
निजभाव परिणत आत्मा कर्त्ता स्वयं के भाव का।
कर्ता न पुद्गल कर्म का यह कथन है जिनदेव का ॥ ६१ ॥ अपने स्वभाव को करता हुआ आत्मा वास्तव में अपने भाव का कर्त्ता है, पुद्गल कर्मों का कर्ता नहीं ।
यहाँ अपने स्वभाव का कर्त्ता जो कहा, उसका अर्थ शुद्ध निश्चय से केवलज्ञानादि स्वभाव का कर्त्ता समझना तथा अशुद्ध निश्चयनय से रागादि भावों को भी जीव का ही विभाव स्वभाव समझना ।
आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न “निश्चय से जीव को अपने भावों से अभिन्न कारक रूप होने से जीव का ही कर्तृत्व है और पुद्गल कर्मों का अकर्तृत्व है। ऐसा समझना । "
इसी विषय में कवि हीरानन्दजी कहते हैं ह्र
( 123 )
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३)
२२९
( दोहा )
निज स्वभाव करता सता, जीव करें निजभाव ।
पुद्गल करम करै नहीं, यहु जिनवचन लखाव ।। २९८ ।। ( सवैया इकतीसा )
निचे के जीव एक अपना सुभाव करै,
शुद्ध अथवा अशुद्ध जग में सुछन्द है । पर का स्वरूप तिहुँ कालविषै नाहिं चरै,
पर का करैया नाहिं चेतना का कन्द है । पर की पर छाँही कौं पर रूप करता है,
आपा पर भासमान आत्मा आनंद है। केवल प्रतच्छ ज्ञानी शुद्ध आतमा कहानी,
जानी जिन जीव ताक वंदना अमंद है ।। २९९ ।। ( दोहा )
सुद्ध असुद्ध सुभाव का, जीव दरब करतार । पुद्गल दरब करम करै, असद्भूत विवहार ।।३०० ।।
कवि हीरानन्द कहते हैं कि ह्र आत्मा अपने स्वभाव को करते हुए अपने निज स्वभाव का ही कर्त्ता है, पुद्गल कर्मों का कर्ता नहीं ।
यद्यपि शुद्ध निश्चयनय से आत्मा अपने केवलज्ञानादि शुद्ध स्वभाव भावों का ही कर्त्ता है तथापि अशुद्धनिश्चयनय से रागादि अशुद्ध भावों का कर्त्ता भी कहा जाता है। आगे कहा है कि ह्न निश्चय से जीव अपने शुद्ध अथवा अशुद्ध स्वभाव को करते हुए जग में स्वछन्द रहता है; किन्तु पर का स्वरूप तो तीनकाल में कभी भी नहीं करता। आत्मा पर का कर्त्ता नहीं है, मात्र चेतना का कंद है, चेतनामय है। आत्मा पर की परछाईं से प्रथक् रहता हुआ अपने पराये के भेदज्ञानपूर्वक अपने आनन्द स्वभाव में