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पञ्चास्तिकाय परिशीलन कारण राग-द्वेष नहीं होते, किन्तु अपने राग-द्वेष-रूप विकारी भाव स्वयं के कारण ही होते हैं और द्रव्यकर्म उनमें निमित्त होते हैं। ऐसा जानना ।
तात्पर्य यह है कि ह्र औदयिक आदि विकारी भावों का कर्ता रागी जीव है, कर्म नहीं। ___यदि सर्वथा द्रव्यकर्म को ही औदयिक आदि विकारी भावों का कर्त्ता कहें तो आत्मा विकार का कर्ता ठहरता नहीं है तथा यदि अकेला द्रव्यकर्म ही विकार का कर्ता हो तो आत्मा की पर्याय में संसार सिद्ध नहीं होता।
कोई कहे कि आत्मा द्रव्यकर्मों का कर्ता है, इस कारण संसार का अभाव नहीं होगा तो उससे कहते हैं कि ह्र ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी कर्म जड़ की पर्याये हैं। जड़ की दशा आत्मा में क्या करें? जड़ तो आत्मा से भिन्न है इसलिए आत्मा कर्म का कर्ता नहीं है; क्योंकि जीव चेतन द्रव्य हैं वह अपने भावकर्म को छोड़कर अन्य कुछ भी परद्रव्य सम्बन्धी भाव को नहीं करता।
आत्मा अपने में शुभ-अशुभ भाव करता है और सम्यग्दर्शन आदि प्रगट कर सकता है, पर जड़ की क्रिया नहीं कर सकता।"
गाथा ५८ में कर्म का निमित्तपना बताने के लिए कहा था कि कर्म राग-द्वेष आदि भावों का कर्ता है। यहाँ गाथा ५९ में स्पष्ट करते हैं कि
औदयिक, उपशम, क्षयोपशम व क्षायिकभाव रूपी कर्म आत्मा के हैं। जिसतरह आत्मा पर का कर्ता नहीं है. उसीप्रकार परद्रव्य भी आत्मा के कर्ता नहीं हैं।
इसप्रकार इस गाथा में यह कहा है कि ह्र यदि औदयिक आदि जीव के भाव द्रव्यकर्म कृत हों तो जीव भावों का कर्ता नहीं है ह्र ऐसा सिद्ध होगा और जीव का सर्वथा अकर्तृत्व तो अभीष्ट है नहीं, जीव अपने औदयिक आदि भावकर्मों का कर्त्ता तो है ही।
गाथा-६० विगत गाथा में कहा गया है कि ह्न यदि जीव के भाव द्रव्यकर्मकृत ही हों तो जीव को द्रव्यकर्मों का कर्ता होना चाहिए, सो यह तो संभव नहीं है, क्योंकि जीव तो अपने भाव को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं करता। ___अब प्रस्तुत गाथा में यह कहते हैं कि जीव के रागादि भावों का निमित्त द्रव्यकर्म है। द्रव्यकर्मों के निमित्त कारण भावकर्म होते हैं ह्र ऐसा कहते हैं।
मूल गाथा इसप्रकार है ह्न भावो कम्मणिमित्तो कम्मं पुण भावकारणं हवदि। ण दु तेसिं खलु कत्ता ण विणा भूदा दु कत्तारं ।।६।।
(हरिगीत) कर्मनिमित्तिक भाव होते अर कर्म भावनिमित्त से। अन्योन्य नहिं कर्ता तदपि, कर्ता बिना नहिं कर्म है ।।६।।
जीवों के भावों का निमित्त द्रव्य कर्म हैं और द्रव्य कर्मों का निमित्त जीव के भाव हैं; परन्तु वास्तव में वे एक दूसरे के कर्त्ता नहीं हैं। तथा कर्ता के बिना कर्म होते हों ह्र ऐसा भी नहीं है। अर्थात् कर्ता के बिना कर्म होते भी नहीं हैं।
आचार्य अमृतचन्द कहते हैं कि इस गाथा में जो कहा गया है वह गाथा ५९ में कहे पूर्वपक्ष के समाधान रूप सिद्धान्त है।
वे कहते हैं कि ह्र व्यवहार से निमित्त मात्रपने के कारण औदयिक आदि भावकर्मों का कर्ता द्रव्यकर्म है तथा द्रव्यकर्म का कर्ता जीव का भाव है। निश्चय से जीवभावों का अर्थात् रागादि भावकर्मों का कर्ता न तो द्रव्यकर्म हैं और न द्रव्यकर्मों के कर्ता भावकर्म हैं; क्योंकि निश्चय से जीव के परिणामों का कर्ता जीव है और द्रव्यकर्मों का कर्ता पुद्गल हैं।
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१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १५२, गाथा-५९, दिनांक २२-३-५२, पृष्ठ-१२१२