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पञ्चास्तिकाय परिशीलन उत्तर :ह्न भक्ति के हेतु से मंगल का भी मंगल किया जाता है। जिस तरह सूर्य की दीपक से, महासागर की जल से, वागीश्वरी की वाणी से पूजा की जाती है, उसी तरह मंगल की मंगल से अर्चना की जाती है।
यह पंचास्तिकाय संग्रह शिवकुमार आदि शिष्यों के लिए बनाया गया है। इस ग्रन्थ के बनाने का हेतु अज्ञान का नाश, सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति और शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति है।
इस गाथा का भाव आध्यात्मिक सत्पुरुष कानजीस्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र यह पंचास्तिकाय के मंगलाचरण की गाथा है। इसमें जिनेन्द्रदेव को नमस्कार किया गया है। मंगलाचरण से ज्ञान में वृद्धि होती है, विघ्न का नाश होता है। सुख प्राप्त होता है।
इस पंचास्तिकाय के यथार्थ ज्ञान का फल अज्ञान की निवृत्ति और ज्ञानस्वभाव की प्राप्ति है; पाठक सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके चैतन्य का अनुभव करें ह्न यही शास्त्र का फल है।
भगवान को अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन आदि अनन्त गुण प्रकट हो गये हैं। यद्यपि वे केवलज्ञान से समस्त वस्तुओं को क्षेत्र और काल की मर्यादा रहित जानते हैं; परन्तु उनके वे ज्ञानादि गुण अपने असंख्य प्रदेशी क्षेत्र में ही रहते हैं।
जिन्होंने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव और भावरूप पंच प्रकार के परावर्तन को जीत लिया है। वे कृतकृत्य हो गये हैं, उन्हें जो करने योग्य था, उन्होंने वह सब कर लिया है और संसार से जीवनमुक्त हो गये हैं।
कितने ही लोग कहते हैं कि भगवान ने दूसरों का भला किया, उपदेश दिया, तीर्थ की स्थापना की, और जगत को सत्य समझाया, परन्तु यह सब निमित्त की अपेक्षा किए गये कथन हैं।
वस्तुतः भगवान ने पर का कुछ भी कार्य नहीं किया है। क्योंकि कोई भी जीव पर का कुछ कर ही नहीं सकता। भगवान ने स्वयं अपने
षड्द्रव्य मंगलाचरण (गाथा १ से २६) में भावमोक्ष की पर्याय का उत्पाद किया और संसारपर्याय का अभाव किया, इसके अलावा अन्य कुछ नहीं किया है।
भगवान तारण-तरण हैं ह्र ऐसा भी कथन आता है, पर इस कथन का अर्थ यह है कि जब दूसरे जीव स्वयं तिरते हैं तो भगवान निमित्त कहलाते हैं। वस्तुतः कोई किसी को शरण नहीं दे सकता। जीव अपने आत्मा की सच्ची समझ करके स्वरूप में एकाग्र होकर राग और अल्पज्ञता का अभाव करके वीतराग-सर्वज्ञपद प्रकट करता है तो भगवान निमित्त कहलाते हैं। स्वरूप को जाने बिना और उसकी शरण बिना भगवान की शरण निमित्त नाम भी नहीं पाती। स्वभाव की शरण लेने वाले के लिए भगवान की शरण निमित्त कहलाती है।" इसी बात को कवि हीरानन्दजी दो पद्यों में कहते हैं -
(दोहा) इंद सतनिकरि वंदि पद, हित-मित-निर्मल बोल।
गुन अनंत जिनराज पद, नमौं विगत-भवडोल ।।१७।। जिनके चरण कमल सौ इन्द्रों द्वारा वन्दनीय हैं, जिनके वचन हितमित और निर्मल हैं, जो भव भ्रमण से रहित एवं अनन्त गुणों के धारक हैं; मैं उन जिनराज के चरण कमलों की वन्दना करता हूँ।
(सवैया इकतीसा) जाकौं इंद वंदै तिहुँ लोक के त्रिकाल विषै,
ताहीरौं त्रिलोक पति नाम गाईयतु है। जीवहितकारी मनोहारी सुधा दिव्यवानी,
याहि मानि पुरुष पुरान ध्याईयतु है।। भवको भ्रमन हरौ करता था सोई करौ,
ग्यानको अपार जामैं सदा पाईयतु है। सुद्धि सादि साधिवेकौ भाव बढ़े जानिकरि,
ताकौं जिन ईस जानि सीस नाईयतु है ।।१८।। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रासाद, अंक १०१, सन् १-२-५२
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