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गाथा-५७ विगत गाथा में उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम और पारिणामिक भावों का संक्षेप में कथन किया है।
प्रस्तुत गाथा में कह रहे हैं कि जीव के विभाव भावों का कर्ता तो जीव स्वयं है तथा निमित्त द्रव्यकर्म हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
कम्मं वेदयमाणो जीवो भावं करेदि जारिसयं । सो तस्स तेण कत्ता हवदि त्ति य सासणे पढिदं ।।५७।।
(हरिगीत) पुद्गल करम को वेदते, आतम करे जिस भाव को। उस भाव का वह जीव कर्ता, कहा जिनवर देव ने ||५७||
कर्म को वेदता हुआ जीव जैसे भावों को करता है, वह उन भावों का उस प्रकार से कर्ता है ह्र ऐसा जिन शासन में कहा है।
टीकाकार आचार्य अमृतचन्द कहते हैं कि ह्र “यह जीव के औदयिकादि भावों के कर्तृत्व प्रकार का कथन है; जीव द्वारा द्रव्य कर्म व्यवहारनय से अनुभव में आता; और वह अनुभव में आता हुआ जीव भावों का निमित्त मात्र कहलाता है। वह निमित्त मात्र होने से जीव द्वारा कर्मरूप से अपना भावकर्मरूप (कार्य रूप) भाव किया जाता है। इसलिए जीव द्वारा जो भाव जिसप्रकार से किया जाता है, उस भाव का उस प्रकार से वह जीव कर्ता है। कवि हीरानन्दजी इसी बात को काव्य में कहते हैं ह्र
(सवैया इकतीसा) दर्वकर्म चैतै जीव लोकविवहार मांहि,
तातें दर्वकर्म जीव भावों का निमित्त है।
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) नाना राग-दोष रूप जीवौं के विभाव बढ़े,
ताही का करता जीव जगमांहिं नित्त है। चारि हैं अशुद्धभाव पर के निमित्त सेती,
एक परिनामी भाव सदा सुद्ध वित्त है। पर का निमित्त डारि अपना स्वरूप धारि, ___ सुद्ध भाव करता है, सोई समचित्त।।२८३ ।।
(दोहा) भाव-करम करता रहै, निहचै जीव असुद्ध ।
सुद्ध-भाव करतार फुनि, निहचै सुद्ध प्रबुद्ध ।।२८४ ।। लोक के व्यवहार में जीवों के भावों में द्रव्य कर्मों को निमित्त कहा है। तथा नाना राग-द्वेष के रूप में जो भाव कर्म हैं, जीव उनका कर्ता है। जगत में जीव के औदयिक आदि चार अशुद्ध भाव हैं तथा एक परिणामिक भाव शुद्ध है, क्योंकि उसे किसी कर्म की अपेक्षा नहीं हैं। निमित्त को नष्टकर तथा अपने स्वरूप को प्राप्त करके जो जीव शुद्ध भाव करता है वह समकिती होता है, वीतरागी होता है।
भावार्थ यह है कि ह्र इस संसारी जीव के अनादिकाल से द्रव्यकर्म का सम्बन्ध है। वह जीव व्यवहारनय से उस द्रव्यकर्म का भोक्ता है। जीव जब जिस द्रव्य कर्म को भोगता है, तब उस ही द्रव्यकर्म का निमित्त पाकर उस जीव के जो चिद्विकार होते हैं, वही चिद्विकार जीव का कार्य है। इस कारण भाव कर्मों का कर्ता आत्मा को कहा जाता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जिन भावों से आत्मा परिणमित होता है, वह उन्हीं भावों का कर्ता होता है।
इस सम्बन्ध में गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी भावार्थ में कहते हैं कि ह्र
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