________________
१९४
पञ्चास्तिकाय परिशीलन कवि हीरानन्दजी उपर्युक्त भाव का स्पष्टीकरण करते हैं ह्र
(सवैया इकतीसा ) ग्यान समवाय थकी ग्यानी नाम पावै जीव,
समवाय बिना भेदग्यानी के अग्यानी है। जौ पै ग्यानी नाम तौ पै ग्यान समवाय वृथा,
अज्ञानी कहावै तौ लौं झूठी सी कहानी है।। ग्यानी के अग्यान समवाय होते ग्यानी नहीं,
अग्यानी अग्यान तातै एकता बखानी है। ऐसा जान ग्यान से ही ग्यानी कौं अनन्य साथै, सोइ समकिति जीव मोक्ष का निदानी है ।।२५९ ।।
(दोहा) दरव और गुन और है, और कहत समवाय । नैयायिकमत मानतें वस्तुरूप नसि जाय ।।२६० ।। जुदी वस्तु जो एक ही, है संयोग संबंध ।
सो समवाय कहावते, जावत नहिं जात्यन्ध ।।२६१ ।। नैयायिक के मतानुसार यदि समवाय सम्बन्ध से जीव ज्ञानी नाम पाता है तो समयवाय सम्बन्ध के पहले जीव ज्ञानी था या अज्ञानी? यदि समवाय के पहले भी ज्ञानी था तो फिर ज्ञान का समवाय सम्बन्ध होना व्यर्थ है और अज्ञानी कहना तो मिथ्या कल्पना ही है।
इस गाथा के सम्बन्ध में गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र 'आत्मा व ज्ञान गुण में प्रदेशभेद रहित एकता है। आत्मा असंख्यात प्रदेशी है तथा गुणों के प्रदेश गुणी से जुदे नहीं है।
जो जीव शरीर से धर्म होना मानते हैं, अर्थात् शरीर को धर्म का साधन मानते हैं, उन्होंने ज्ञान को आत्मा से जुदा माना । गुण व गुणी को
जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) एक नहीं माना। उन्हें अपने धर्म के लिए बाहर में शोध करनी पड़ेगी; किन्तु सत्य वस्तु का स्वरूप ऐसा नहीं है। धर्म तो स्वयं में से ही होता है। ___ गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ने वही सब तर्क प्रस्तुत किए हैं, जो आचार्य अमृतचन्द्र एवं आचार्य जयसेन स्वामी ने दिये हैं। परन्तु कुछ मान्यताओं का जिक्र करते हुए भी स्वामीजी उन दृष्टान्तों द्वारा सिद्धान्त को समझाते हैं। वे कहते हैं कि ह्न दृष्टान्त एकदेश (आंशिक) घटता है, सर्वदेश नहीं घटता।
अन्यमतवालों की चर्चा करते हुए स्वामीजी कहते हैं कि एक सम्प्रदाय ऐसा मानता है कि केवलज्ञान तो सब में प्रगट ही है, संसारी जीवों में बादलों में ढंके जाज्वल्यमान सूर्य की भाँति ढंका रहने से हम उसे जान नहीं पाते।
दूसरा सम्प्रदाय ऐसा मानता है कि जैसे राख के अन्दर आग है, पर कर्मरूपी रज का राख के कारण हमें दिखाई नहीं देता। उसका प्रभाव राख से ढंका हुआ है। राख हटाने पर जैसे आग को देख सकते हैं वैसे ही कर्मरज या राख हटाने पर आत्मा में व्यक्त केवल ज्ञान देखा जाता है। इसलिए हमें कर्मरूपी राख हटाने का प्रयत्न करना चाहिए।'
उनका समाधान करते हुए श्री कानजीस्वामी ने कहा है कि ह्र वस्तुस्वरूप ऐसा नहीं है। केवलज्ञान प्रगटरूप नहीं है, किन्तु शक्ति रूप है। जो यह कहता है कि केवलज्ञान पर कर्मों का आवरण है। जैसे बादल सूर्य को ढंक लेते हैं, ऐसा ही कर्मों ने केवलज्ञान ढंक लिया है। यह मान्यता भी खोटी है; क्योंकि कर्म तो जड़ है, वे आत्मा के केवलज्ञान को रोक नहीं सकते। अरे! जब आत्मा स्वयं में एक अन्तमुहूर्त को एकाग्र होता है तो केवलज्ञान स्वयं प्रगट हो जाता है और कर्म स्वयं टल जाते हैं।'
(106)
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १४६, पृष्ठ ११५९, दिनांक १९-३-५२ नोट : पृष्ठ ५९ से प्रारंभ है, पृष्ठ १६९ पर भी है।