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नियमसार अनुशीलन आत्मा की अखण्डता नहीं रहती; अतः ज्ञान पर को ही जानता है और दर्शन स्व को ही देखता है यह बात गलत है।
निश्चय से आत्मा स्वयं स्वपरप्रकाशक है; अतः उसके गुण भी स्वपरप्रकाशक हैं - इस न्याय से ज्ञान और दर्शन दोनों गुण स्वपरप्रकाशक सिद्ध होते हैं।
जिसप्रकार आत्मा को समझे बिना यह जीव पूजा - भक्ति, दान, व्रत, तप इत्यादि करे तो उनसे आत्मा को लाभ नहीं होता; उसी प्रकार अभेद आत्मा को जाने बिना अकेला गुणभेद का व्यवहार कुछ भी कार्यकारी नहीं है।
ज्ञान और दर्शन दोनों को स्वपरप्रकाशक मानने में कोई विरोध नहीं है; अतः सिद्ध होता है कि ज्ञान दर्शनरूपी स्वपरप्रकाशक गुणों का आधार होने से गुणी आत्मा भी स्वपर प्रकाशक ही है। "
इस गाथा और उसकी टीका में अत्यन्त दृढ़तापूर्वक यह कहा गया है कि दर्शन स्वप्रकाशक है और ज्ञान परप्रकाशक है ह्र इसप्रकार दोनों को मिलाकर आत्मा स्वपरप्रकाशक है ह्न यह बात सही नहीं है। वस्तुस्थिति यह है कि ज्ञान भी स्वपरप्रकाशक है, दर्शन भी स्वपरप्रकाशक है और आत्मा भी स्वपरप्रकाशक है।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज 'अमृतचन्द्राचार्य के द्वारा भी कहा गया है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है ह्र ( स्रग्धरा ) जानन्नप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भाविभूतं समस्तं मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निर्लनकर्मा । नाते मुक्त एव प्रभविकसितज्ञप्तिविस्तारपीत ज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्ति: ।। ७७ ।। ५
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३७३ - १३७४
२. वही, पृष्ठ १३७८
४. वही, पृष्ठ १३७९
३. वही, पृष्ठ १३७८-१३७९
५. प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिका, छन्द ४
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गाथा १६१ : शुद्धोपयोगाधिकार
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( मनहरण कवित्त ) जिसने किये हैं निर्मूल घातिकर्म सब । अनंत सुखवीर्य दर्शज्ञान धारी आतमा ॥ भूत भावी वर्तमान पर्याय युक्त सब ।
द्रव्य जाने एक ही समय में शुद्धातमा ॥ मोह का अभाव पररूप परिणमें नहीं ।
सभी ज्ञेय पीके बैठा ज्ञानमूर्ति आतमा ।। पृथक्-पृथक् सब जानते हुए भी ये ।
सदा मुक्त रहें अरहंत परमातमा ॥७७॥ जिसने कर्मों को छेद डाला है ह्न ऐसा यह आत्मा विश्व के समस्त पदार्थों को उनकी भूत, भावी और वर्तमान पर्यायों के साथ ह्न सभी को एकसाथ जानता हुआ भी मोह के अभाव के कारण पररूप परिणमित नहीं होता; इसलिए अत्यन्त विकसित ज्ञप्ति के विस्तार से स्वयं पी डाला है समस्त ज्ञेयाकारों को जिसने ह्र ऐसा यह ज्ञानमूर्ति आत्मा तीनों लोकों के सभी पदार्थों के ज्ञेयाकारों को पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ कर्मबंधन से मुक्त ही रहता है।
उक्त छन्द में मात्र इतना ही कहा गया है कि लोकालोक को सहज भाव से जाननेवाला यह ज्ञानमूर्ति भगवान आत्मा मोह-राग-द्वेष के अभाव के कारण सबको सहजभाव से जानते हुए भी कर्मबंध को प्राप्त नहीं होता ॥७७॥
इसके बाद टीकाकार मुनिराज ' तथाहि' लिखकर एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र
( मंदाक्रांता )
ज्ञानं तावत् सहजपरमात्मानमेकं विदित्वा लोकालोकौ प्रकटयति वा तद्वतं ज्ञेयजालम् ।
दृष्टि: साक्षात् स्वपरविषया क्षायिकी नित्यशुद्धा ताभ्यां देवः स्वपरविषयं बोधति ज्ञेयराशिम् ।। २७७ ।।