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नियमसार अनुशीलन (मंदाक्रांता) एको देवः स जयति जिनः केवलज्ञानभानुः कामं कान्तिं वदनकमले संतनोत्येव कांचित् । मुक्तेस्तस्याः समरसमयानंगसौख्यप्रदायाः को नालं शं दिशतुमनिशं प्रेमभूमेः प्रियायाः ।।२७५।।
(हरिगीत ) आप केवलभानु जिन इस जगत में जयवंत हैं। समरसमयी निदेह सुखदा शिवप्रिया के कंत हैं। रेशिवप्रिया के मुखकमल पर कांति फैलाते सदा।
सुख नहीं दे निजप्रिया को है कौन ऐसा जगत में ।।२७५|| केवलज्ञानरूपी प्रकाश को धारण करनेवाले एक जिनदेव ही जयवन्त हैं। वे जिनदेव समरसमय अशरीरी सुख देनेवाली मुक्तिरूपी प्रिया के मुखकमल पर अवर्णनीय कान्ति फैलाते हैं; जगत में स्नेहमयी अपनी प्रिया को निरन्तर सुखोत्पत्ति का कारण कौन नहीं होता ?
जिसप्रकार जगत के मोही जीव स्वयं की प्रिय प्रिया को प्रसन्न रखते हैं; उसीप्रकार हे प्रभो ! आप भी समतारसमय अशरीरी सुख देनेवाली अपनी मुक्ति प्रिया के मुखकमल पर अवर्णनीय कांति फैलाते हैं, उसे सब प्रकार अनुकूलता प्रदान करते हैं।
स्वामीजी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ।
“जो पूर्णपर्याय प्रगट हुई है, उसमें मुनिराज स्त्री का उपचार करते हैं। केवली भगवान अपनी पर्याय की शोभा फैला रहे हैं। रागीपुरुष जगत की स्त्री के लिए शोभा फैलाते हैं; परन्तु वे वास्तव में ऐसा स्त्री की शोभा के लिये नहीं करते; बल्कि अपने राग के लिये करते हैं। केवलज्ञानी अपनी पर्याय की शोभा अपने आनन्द के लिये फैलाते हैं। सर्वज्ञ भगवान को अपनी पूर्णशुद्धपर्याय से प्रेम है। वे उसका वियोग नहीं होने देते । निरन्तर उसे सेवते हैं। ऐसी द्रव्य और पर्याय की एकता हो गयी है।” १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३६९-१३७०
गाथा १६० : शुद्धोपयोगाधिकार
इसप्रकार इस छन्द में लौकिक पति-पत्नी के उदाहरण के माध्यम से जिनेन्द्र भगवान और मुक्ति प्रिया के अलौकिक स्वरूप को स्पष्ट करते हैं।।२७५।। चौथा छन्द इसप्रकार है ।
(अनुष्टुभ्) जिनेन्द्रो मुक्तिकामिन्या: मुखपोजगाम सः । अलिलीलां पुनः काममनङ्गसुखमद्वयम् ।।२७६।।
(दोहा) अरे भ्रमर की भांति तुम, शिवकामिनि लवलीन |
अद्वितीय आत्मीक सुख, पाया जिन अमलीन ||२७६|| हे जिनेन्द्र ! आप मुक्तिरूपी कामिनी के मुखकमल पर भ्रमर की भांति लीन हो गये हो और आपने अद्वितीय आत्मिक सुख प्राप्त किया है।
तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार भ्रमर कमल पुष्पों पर आकर्षित होकर लीन हो जाते हैं; उसीप्रकार हे जिनेन्द्र भगवान आप भी अपने आत्मा में लीन हैं और आत्मानन्द ले रहे हैं।।
गुरुदेव श्री कानजी स्वामी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह
“भगवान ने द्रव्यस्वभाव में अपनी पर्याय को लीन कर दिया है। वे केवलज्ञान, दर्शन, सुख वीर्य आदि में विराज रहे हैं। उन्होंने ऐसा अभेद अद्वितीय सुख प्राप्त किया है, जो संसार में नहीं मिलता। यहाँ केवलज्ञान, केवलदर्शन को पहिचानकर उनके गीत गाये हैं। जिसप्रकार भ्रमर कमल में लीन हो जाता है; उसीप्रकार भगवान अपने स्वभाव में लीन हो गये हैं, अनन्तसुख-आनन्द में डूब गये हैं।" ___ इसप्रकार इस छन्द में जिनेन्द्र भगवान की आत्मलीनता का स्वरूप स्पष्ट किया गया है ।।२७६।।
इसप्रकार हम देखते हैं कि उक्त चारों छन्दों में टीकाकार मुनिराज विविध प्रकार से जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करते दृष्टिगोचर होते हैं।
अध्यात्म और भक्ति का इतना सुन्दर समन्वय अन्यत्र असंभव नहीं तो दुर्लभ तो है ही। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३७०
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