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गाथा १५४ : निश्चय परमावश्यक अधिकार
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नियमसार अनुशीलन अनुभव करते हैं, सभी न्यायों और सिद्धान्तों में पारंगत होते हैं। पाँच इन्द्रिय के विषयों के फैलाव रहित अतीन्द्रियस्वभाव में लीन रहते हैं, उनके देहमात्र परिग्रह के अलावा अन्य कोई परिग्रह नहीं होता।
उनकी देह मात्र संयम के लिए होती है, अन्य किसी कार्य के लिए नहीं। निर्ग्रन्थ मुनियों का त्रिकाल ऐसा स्वरूप होता है।
टीकाकार मुनिराज कहते हैं कि मेरे मुख से परमागम झरता है। इस नियमसार की टीका परम-आगम है। जिसप्रकार करोड़पति कहता है कि हमारी इंडियाँ (चैक) कभी वापस नहीं होती; उसीप्रकार मुनिराज कहते हैं कि जो अनन्त केवलियों ने कहा है, वही मैं कहता हूँ। वह अफर है अर्थात् वह कभी बदलता नहीं है। मैं भावलिंगी मुनि हूँ और वक्ता की प्रामाणिकता से वचन प्रमाण होते हैं, इसलिए मेरी की हुई टीका परम-आगम है। जिसप्रकार पुष्प में से मकरंद झरता है, उसीप्रकार आगमरूपी मकरंद मेरे मुखकमल में से झरता है।"
इसीप्रकार के भाव की पोषक एक गाथा अष्टपाहुड़ में आती है; जो इसप्रकार है तू
जं सक्कड़ तं कीरइ जंच ण सक्केइ तं च सद्दहणं । केवलिजिणेहिं भणियं सद्दमाणस्स सम्मत्तं ।।'
(हरिगीत) जो शक्य हो वह करें और अशक्य की श्रद्धा करें।
श्रद्धान ही सम्यक्त्व है इस भाँति सब जिनवर कहें। जो शक्य हो वह करें और जो शक्य न हों, उसका श्रद्धान करें; क्योंकि केवली भगवान ने कहा है कि श्रद्धान करनेवाले को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। ___ तत्त्वार्थसूत्र के अन्त में जो गाथायें छपी रहती हैं, उनमें भी इसप्रकार की एक गाथा आती है, जो इसप्रकार है ह्न
जं सक्कइ तं कीरइ जण सक्कड़ तहेव सद्दहणं।
सद्दहभावो जीवो पावइ अजरामरं ठाणं ।। जो शक्य है, वह करना चाहिए, पर जो शक्य नहीं है, उसका श्रद्धान करना चाहिए; क्योंकि श्रद्धान करनेवाला जीव अजर-अमर स्थान (मुक्ति) को प्राप्त करता है।
नियमसार की इस गाथा में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा है कि यदि शक्य है तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि ही करना चाहिए; अन्यथा इनका श्रद्धान तो अवश्य करना ही चाहिए।
यह बात साधारण मुनिराजों की ही नहीं है, अपितु महान वैरागी, परद्रव्य से विमुख, स्वद्रव्य ग्रहण में चतुर, देहमात्र परिग्रह के धारी पद्मप्रभमलधारिदेव जैसे मुनि शार्दूलों से यह बात कही जा रही है।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र
(मंदाक्रांता) असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले न मुक्तिर्मार्गेऽस्मिन्नघजिननाथस्य भवति । अतोऽध्यात्मं ध्यानं कथमिह भवेन्निर्मलधियां निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् ।।२६४ ।।
(हरिगीत) पापमय कलिकाल में जिननाथ के भी मार्ग में। मुक्ति होती है नहीं निजध्यान संभव न लगे। तो साधकों को सतत आतमज्ञान करना चाहिए।
निज त्रिकाली आत्म का श्रद्धान करना चाहिए।।२६४|| इस असार संसार में पाप की बहुलतावाले कलिकाल के विलास में निर्दोष जिननाथ के मार्ग में भी मुक्ति नहीं है। इसलिए इस काल में आत्मध्यान कैसे हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि ध्यान की विरलता है। शुक्लध्यान तो है ही नहीं, निश्चय धर्मध्यान भी विरल है।
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १२६४-१२६५ २. अष्टपाहुड़ : दर्शनपाहुड़, गाथा २२