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नियमसार अनुशीलन __इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र
(मंदाक्रांता) आत्मा तिष्ठत्यतुलमहिमा नष्टदृक्शीलमोहो य:संसारोद्भवसुखकर कर्म मुक्त्वा विमुक्तेः । मूले शीले मलविरहिते सोऽयमाचारराशिः। तं वंदेऽहं समरससुधासिन्धुराकाशशांकम् ।।२६२।।
(रोला) दर्शन अर चारित्र मोह का नाश किया है।
भवसुखकारक कर्म छोड़ संन्यास लिया है। मुक्तिमूल मल रहित शील-संयम के धारक।
समरस-अमृतसिन्धु चन्द्र को नमन करूँ मैं ||२६२।। नष्ट हो गये हैं दर्शनमोह और चारित्रमोह जिसके ह्र ऐसा अतुल महिमावाला बारहवें गुणस्थानवर्ती आत्मा; संसारजनित सुख के कारण भूत कर्म को छोड़कर, मुक्ति के मूल मलरहित चारित्र में स्थित है, चारित्र का पुंज है। समतारसरूपी अमृतसागर को उछालने में पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान उस आत्मा को मैं वंदन करता हूँ।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"ऐसे मुनिराज पूर्णमासी के चन्द्र समान हैं। जिसप्रकार पूर्णमासी का चन्द्रमा अपनी सोलह कलाओं से खिलता है और समुद्र के पानी को उछालने में कारण होता है; उसीप्रकार मुनिराज का अपना आत्मा जो समताभाव का समुद्र है, उनकी पर्याय में आनन्द और शांति को उछालने में वह कारण बनता है। वह अपनी ज्ञानकला से खिल उठता है। टीकाकार मुनिराज कहते हैं कि मैं ऐसे मुनिराज की वंदना करता हूँ।"
इस छन्द में भी बारहवें गुणस्थानवाले पूर्ण वीतरागी मुनिराजों की भक्तिभाव पूर्वक वंदना की गई है ।।२६२।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११०
नियमसार गाथा १५३ विगत गाथा में वीतरागी चारित्र में स्थित मुनिराजों की अनुशंसा करने के उपरान्त अब इस गाथा में वचनमय प्रतिक्रमणादि का निराकरण करते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्न
वयणमयं पडिकमणं वयणमयं पच्चखाण णियमंच। आलोयण वयणमयं तं सव्वं जाण सज्झायं ।।१५३ ।।
(हरिगीत) वचनमय प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान अर आलोचना।
बाचिक नियम अर ये सभी स्वाध्याय के ही रूप हैं ।।१५३|| वचनमय प्रतिक्रमण, वचनमय प्रत्याख्यान, वचनमय नियम और वचनमय आलोचना ह्न ये सब प्रशस्त अध्यात्मरूप शुभभावरूप स्वाध्याय जानो।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“यह समस्त वचनसंबंधी व्यापार का निराकरण है। पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण क्रिया का कारण, निर्यापक आचार्य के मुख से निकला हुआ, समस्त पापों के क्षय का कारण सम्पूर्ण द्रव्यश्रुत, वचनवर्गणा योग्य पुद्गल द्रव्यात्मक होने से ग्रहण करने योग्य नहीं है।
प्रत्याख्यान, नियम और आलोचना भी पुद्गलद्रव्यात्मक होने से ग्रहण करने योग्य नहीं है। वे सब पौद्गलिक वचनमय होने से स्वाध्याय हैं ह्र ऐसा हे शिष्य ! तू जान ।” ___आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा और उसकी टीका का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“प्रतिक्रमण में बोले जानेवाले शब्द तो जड़ हैं, वे आत्मा की क्रिया नहीं हैं और उसके साथ होनेवाला शुभभाव पुण्यासव है, वह भी आत्मा की आवश्यक क्रिया नहीं है। प्रत्याख्यान में बोले जानेवाले