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गाथा १४७ : निश्चय परमावश्यक अधिकार
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नियमसार अनुशीलन इसके बाद तथा चोक्तं श्रीयोगीन्द्रदेव ह्न तथा श्री योगीन्द्रदेव ने भी कहा है' ह्र ऐसा लिखकर टीकाकार मुनिराज एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है तू
(मालिनी) यदि चलति कथंचिन्मानसं स्वस्वरूपाद्
भ्रमति बहिरतस्ते सर्वदोषप्रसंगः । तदनवरतमंतर्मग्नसंविग्नचित्तो भवभवसिभवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम् ।।६८।।
(सोरठा) प्रगटें दोष अनंत, यदि मन भटके आत्म से।
यदि चाहो भव अंत, मगन रहो निज में सदा ||६८|| हे योगी ! यदि तेरा मन किसी कारण से निजस्वरूप से विचलित हो, भटके तो तुझे सर्वदोष का प्रसंग आता है। तात्पर्य यह है कि आत्म स्वरूप से भटकने से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। इसलिए तू सदा अन्तर्मग्न और विरक्त चित्तवाला रह; जिससे तू मोक्षरूपी स्थायी धाम का अधिपति बनेगा, तुझे मुक्ति की प्राप्ति होगी।
इसप्रकार इस छन्द में यही कहते हैं कि आत्मस्वरूप से विचलित होने से, अपने में अपनापन न होने से अनन्त संसार के कारण मिथ्यात्वादि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं; अत: सभी आत्मार्थियों को अपने में अपनापन तो होना ही चाहिए, साथ में विरक्त चित्त भी रहना चाहिए।।६८||
इसके बाद एक छन्द टीकाकार मुनिराज स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है तू
(शार्दूलविक्रीडित ) यद्येवं चरणं निजात्मनियतं संसारदुःखापहं मुक्तिश्रीललनासमुद्भवसुखस्योच्चैरिदं कारणम् । बुद्धवेत्थं समयस्य सारमनघं जानाति यः सर्वदा
सोयं त्यक्तबहिःक्रियो मुनिपति: पापाटवीपावकः ।।२५५ ।। १. अमृताशीति, श्लोक ६४
(रोला) अतिशय कारण मुक्ति सुन्दरी के सम सुख का।
निज आतम में नियतचरण भवदुख का नाशक|| जो मुनिवर यह जान अनघ निज समयसार को।
जाने वे मुनिनाथ पाप अटवी को पावक ||२५५।। यदि इस जीव को संसार के दुखों को नाश करनेवाला और अपने आत्मा में नियत चारित्र हो तो; वह चारित्र मुक्तिलक्ष्मीरूपी सुन्दरी के समागम से उत्पन्न होनेवाले सुख का उच्चस्तरीय कारण होता है।
ऐसा जानकर जो मुनिराज अनघ (निर्दोष) समयसार (शुद्धात्मा) को जानते हैं; उसमें ही जमते-रमते हैं; बाह्य क्रियाकाण्ड से मुक्त वे मुनिराज पापरूपी भयंकर जंगल को जलाने के लिए दावाग्नि के समान हैं। ___ इस छन्द के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं त
“यदि इस जीव को संसारदुःखनाशक निजात्माश्रित, एकाग्रतारूप वीतरागतामय निश्चयचारित्र हो, तो वह चारित्र मुक्तिलक्ष्मीरूपी परिणति से उत्पन्न सुख का अतिशयपने ह्र विशेषपने कारण होता है; इसप्रकार जानकर जो मुनिश्रेष्ठ निर्दोष समय के सार को अर्थात् साक्षात् शुद्धचिद्रूप पूर्णानन्दस्वरूप को सम्पूर्णपने जानते हैं और जिन्होंने बाह्यक्रिया शुभाशुभकर्मचेतना छोड़ दी है ह ऐसे मुनिराज ज्ञानानन्द की उग्र एकाग्रतारूप अग्नि द्वारा शुभाशुभभावरूपी अटवी को/जंगल को जलानेवाले हैं और अन्तरंग निर्मल शान्त ज्ञानानन्दस्वभाव में एकाग्रता/ स्थिरता को भजते हैं/प्राप्त करते हैं। तात्पर्य यह है कि वहाँ शुभाशुभ संसाररूपी पाप उत्पन्न ही नहीं होते।"
इसप्रकार इस छन्द में यह कहा गया है कि आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाला चारित्र ही मुक्ति का कारण है। बाह्य क्रियाकाण्ड से विरक्त और इसमें अनुरक्त मुनिराज ही मिथ्यात्वादि को नाश करने वाले हैं।।२५५॥ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८८