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नियमसार अनुशीलन जघन्यरत्नत्रय कहा है। यहाँ व्यवहार मात्र में ही लीन मिथ्यादृष्टि को जघन्य अर्थात् हीनपरिणतिवाला कहा है। यहाँ शैली ऐसी है कि जिनके मात्र व्यवहाररत्नत्रय का ही आश्रय है. वे व्यवहार से शभसहित होने पर भी निश्चय से तो अशुभ सहित ही हैं; क्योंकि शुद्ध, असंग, अतीन्द्रिय निजसुखस्वरूप भगवान आत्मा का उन्हें भान नहीं है। वे व्यवहार क्रिया से धर्म मानते हैं। अतः वे भले ही सच्चे देव-गुरु शास्त्र की श्रद्धा,
आगमज्ञान और व्यवहारसंयम पालते हों; परन्तु उनके आस्रव की भावना वर्तती होने से उनकी परिणति जघन्य है - हीन है। खोटे हीरे की तरह उनका रत्नत्रय झूठा है - अशुभ है। वे मात्र द्रव्यलिंग धारण करके स्वात्मकार्य से विमुख रहते हुए यथार्थ तपश्चरण आदि के प्रति उदासीन रहते हैं और मात्र पराश्रयभूत व्यवहार में ही उत्साही होते हैं।'
कुन्दकुन्दाचार्य आदि महामुनिनाथ जैसे नग्न दिगम्बर भावलिंगी संत कहते हैं कि अकेले व्यवहार की रुचिवाले परद्रव्य में कर्तृत्वममत्वबुद्धि और आत्मानन्द की अरुचिरूप अशुभभाव से मात्र अपना पेट भरने के लिए ही मुनिभेष धारण करते हैं। - ऐसे चैतन्यस्वरूप आत्मा के प्रति उदासीन और व्यवहार के प्रति उत्साहवान जीव संसारमार्गी-संसारी ही हैं।
अहाहा ! जिसे शुद्ध आत्मा का भान भी नहीं है, उसे स्ववशपना कहाँ से होगा ? जिसप्रकार अज्ञानी अपने को पर का कर्ता मानता है; उसीप्रकार द्रव्यलिंगी मुनि भी यदि ऐसा माने कि मैं पाठशाला, मकान, मन्दिर आदि का कर्ता हूँ या अमुक कार्य करा सकता हूँ, तो वह भी अज्ञानी ही है। परद्रव्य की पर्याय आत्मा कर ही नहीं सकता। पर से भिन्न निज-आत्मा को जानकर उसमें लीन होना ही अवशपना है अर्थात् आवश्यक कार्य है।" विशेष ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ तात्पर्यवृत्ति नामक टीका
गाथा १४३ : निश्चय परमावश्यक अधिकार में मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव अत्यन्त स्पष्ट और कठोर शब्दों में कह रहे हैं कि जघन्य रत्नत्रय परिणतिवाले जीव को निश्चय धर्मध्यानरूप परमावश्यक कर्म नहीं है। उसने भोजन के लिए द्रव्यलिंग (नग्न दिगम्बर दशा) धारण किया है। वह जिनमंदिर और उसकी जमीन, मकान, धन-धान्य को अपना मानता है, उस पर अधिकार जमाता है।
इससे प्रतीत होता है कि आज से हजार वर्ष पहले उनके समय में भी इसप्रकार की दुष्प्रवृत्तियाँ चल पड़ी थीं और उनका निषेध भी बड़ी कड़ाई के साथ किया जा रहा था ||१४३||
इसके बाद मुनिराज पाँच छन्द लिखते हैं, उनमें से पहला छन्द इसप्रकार है ह्न
(मालिनी) अभिनवमिदमुच्चैर्मोहनीयं मुनीनां
त्रिभुवनभुवनान्तांतपुंजायमानम् । तृणगृहमपि मुक्त्वा तीव्रवैराग्यभावाद् वसतिमनुपमां तामस्मदीयां स्मरन्ति ।।२४०।।
(ताटंक) त्रिभुवन घर में तिमिर पुंज सम मुनिजन का यह घन नव मोह। यह अनुपम घर मेरा है-यह याद करें निज तृणघर छोड़।।२४०||
मानो जैसे तीन लोकरूपी मकान में घना अंधकार प्रगाढ़रूप से भरा हो, वैसा ही द्रव्यलिंगी मुनियों का यह अभिनव तीव्र मोह है; जिसके वश वैराग्यभाव से घास के घर को छोड़कर भी वे वसतिका (मठादि) में एकत्व-ममत्व करते हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
"ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक ह्र इसप्रकार त्रिलोकरूपी मकान में रहे हुए अंधेरे के समान अज्ञानियों का मोह है। यहाँ कह रहे हैं
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११७५ २. वही, पृष्ठ ११७६
३. वही, पृष्ठ ११७७
१. अशनार्थं द्रव्यलिंग गृहीत्वा स्वात्मकार्यविमुख: सन्..