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नियमसार अनुशीलन "जिनके सम्यक श्रद्धान-ज्ञान में पूर्ण स्वतंत्र आत्मवस्तु का निश्चय वर्तता है और इसके साथ अन्तरंग में स्थिरतारूप वीतरागचारित्र वर्तता हैह्र ऐसे परमजिनयोगीश्वरों को परम-आवश्यक कर्म अर्थात् स्वाभाविक आत्मपरिणतिरूप कार्य अवश्य होता है।
सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान द्वारा मिथ्यात्व-रागादि को जीतनेवाला ही योगी है। वह अपने पूर्ण ज्ञानानन्दस्वरूप को ही स्व-परिग्रह मानता है, स्वाश्रय ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव में जागृत रहता है, विपरीतभावों के वश नहीं होता। इसलिए ही उसे परवश न होनेवाला 'अवश' याने स्वतंत्र कहा गया है। ___ 'परवशता नहीं है' यह नास्ति से किया गया उपचार कथन है; क्योंकि जब स्वाश्रय ज्ञाता-दृष्टा रहता है, तब परवशतारूप विरुद्धभाव की उत्पत्ति ही नहीं होती। इसलिए सम्यग्दृष्टि को भी योगी कहा जाता है।
अरे ! जिसे अभी जड़ से भिन्न चैतन्यसत्ता का भान नहीं है, उसे अपनी विकारी पर्याय स्वतंत्रपने अपने अपराध से होती है, और विकार स्वभाव में नहीं है । ह ऐसी सम्यक् दृष्टि प्रगट नहीं होती।
जितना ज्ञानी अरागी निश्चयस्वभाव में स्थिर रहता है, उतना चारित्र-अपेक्षा स्ववश है। दृष्टि में तो पूर्णतः स्ववश ही है, मुक्त ही है। चैतन्यस्वभाव के अवलम्बन से पराश्रय का अवलम्बन टूटता है ह्र यही मुक्ति की युक्ति है, मोक्ष का उपाय है। पराश्रय बंधभाव से पुण्यास्रव की पुष्टि करनेवालों की बात तो कुयुक्ति है; क्योंकि मुक्ति का उपाय निमित्त, पुण्य, व्यवहार या शरीर की क्रिया से तीन काल में भी नहीं होता।
स्वाश्रय निश्चयरत्नत्रय से ही मुक्ति होती है। इस अबाधित नियम को स्थापित करके मिथ्यात्व का त्याग करना ही सम्यक्युक्ति है।
गाथा १४२ : निश्चय परमावश्यक अधिकार
अवयव अर्थात् काय और काय से रहित निरवयपना है। तात्पर्य यह है कि पुण्य-पाप आदि भावकर्म तथा जड़ द्रव्यकर्म आदि से मुक्त होने का तथा अनन्त ज्ञानानन्द की पूर्णता सहित होने का उपाय स्ववशता अर्थात् निश्चय मोक्षमार्ग है और उसका कारण त्रिकाली चिदानन्द निज परमात्मद्रव्य है।
व्यवहार व्रतादि शुभराग से पुण्यबंध होता है और मिथ्यात्वअव्रतादि अशुभराग से पापबंध होता है तथा आत्माश्रित अरागी ज्ञान एवं शान्तिरूप स्ववशता से शक्तिरूप में विद्यमान बंधरहित अकेली स्वाधीन सुखदशा प्रगट होती है।"
इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में यह कहा गया है कि किसी अन्य केवश नहीं होना ही अवश है और अवश का भाव आवश्यक है, परम आवश्यक है, निश्चय परम आवश्यक है। यह निश्चय परम आवश्यक ही साक्षात् मुक्ति का मार्ग है, अशरीरी होने का उपाय है।
अपने त्रिकाली ध्रुव आत्मा में अपनापन स्थापित करना. उसे ही निजरूप जानना-मानना और उसमें लीन हो जाना ही स्ववशता है। इस स्ववशता को ही यहाँ परम आवश्यक कर्म कहा गया है। इसके विरुद्ध परपदार्थों और उनके आश्रय से उत्पन्न होनेवाले मोह-रागद्वेषरूप परिणामों में अपनापन ही परवशता है। यह परवशता आत्मा का कर्त्तव्य नहीं है, आत्मा के लिए आवश्यक कर्म नहीं है; क्योंकि वह अवस्था बंधरूप है,बंध की कारण है।।१४२।।
इसके उपरांत टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं; जो इस प्रकार है ह्न
(मंदाक्रांता) योगी कश्चित्स्वहितनिरतःशुद्धजीवास्तिकायाद् अन्येषां यो न वश इति या संस्थिति:सा निरुक्तिः । तस्मादस्य प्रहतदुरितध्वान्तपुंजस्य नित्यं
स्फूर्जज्योति:स्फुटितसहजावस्थयाऽमूर्तता स्यात् ।।२३९।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११७०-११७१
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११६६ २. वही, पृष्ठ ११६६ ४. वही, पृष्ठ ११६९
३. वही, पृष्ठ ११६६ ५. वही, पृष्ठ ११७०