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नियमसार अनुशीलन
जो श्रावक या संयमी जीव संसार भय को हरण करनेवाले इस सम्यग्दर्शन की, शुद्धज्ञान और शुद्धचारित्र की ; संसार का छेद कर देनेवाली अतुल भक्ति निरन्तर करता है; काम-क्रोधादि सम्पूर्ण दुष्ट पापसमूह से मुक्त चित्तवाला वह श्रावक अथवा संयमी जीव निरन्तर भक्त है, भक्त ही है।
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आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
" रागादि का लक्ष्य छोड़कर चिदानंद ज्ञानस्वभाव की भक्ति करना तो निश्चयभक्ति है और निश्चयभक्ति के साथ होनेवाले शुभराग को व्यवहारभक्ति कहा गया है। सर्वज्ञ के मार्ग में तो शुद्धरत्नत्रय का भजन करनेवाले को ही भक्त कहा गया है।"
गृहस्थ हो या मुनि, जिसे अपने शुद्धात्मा के श्रद्धा - ज्ञान - चारित्र की भक्ति है, वही सच्चा भक्त है तथा यह भक्ति भव की छेदक है।"
आचार्यदेव पुकार -पुकार कर कह रहे हैं कि अहो ! चिदानंद परमात्मतत्त्व की श्रद्धा करके जो उसकी आराधना करता है, वह जीव निरन्तर भक्त है, भक्त है। उसे सोते-जागते निरन्तर चैतन्य का भजन है। उस श्रावक को कदाचित् लड़ाई आदि का भाव भी आ जाय तो भी उसके उस समय भी शुद्ध चैतन्यतत्त्व की दृष्टि छूटती नहीं है, इसलिए कहा है कि वह भक्त है, भक्त है। "
उक्त कलश में मात्र यही कहा गया है कि शुद्ध रत्नत्रयधारी श्रावक या संयमी दोनों ही सदा निश्चय भक्ति से संपन्न हैं। भले ही वे आपको बाह्य में भक्ति करते दिखाई न दें; तथापि वे अपनी शुद्ध रत्नत्रय परिणति से निरन्तर भक्त ही हैं ||२२० ॥
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११०४
२. वही, पृष्ठ ११०४
३. वही, पृष्ठ ११०७
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नियमसार गाथा १३५
१३४वीं गाथा में निश्चयभक्ति का स्वरूप कहा। अब इस १३५वीं गाथा में व्यवहारभक्ति का स्वरूप समझाते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र
मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसिं पि । जो कुणदि परमभत्तिं ववहारणयेण परिकहियं । । १३५ । । ( हरिगीत )
मुक्तिगत नरश्रेष्ठ की भक्ति करें गुणभेद से ।
वह परमभक्ति कही है जिनसूत्र में व्यवहार से ||१३५ || जो जीव मोक्षगत पुरुषों का गुणभेद जानकर, उनकी भी परमभक्ति करता है; उस जीव को व्यवहारनय से परमभक्ति कही है।
उक्त गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"यह व्यवहारनयप्रधान सिद्धभक्ति के स्वरूप का कथन है। जो पुराणपुरुष सम्पूर्ण कर्मों के क्षय के उपायभूत कारणपरमात्मा की अभेद - अनुपचार रत्नत्रय परिणति से भलीप्रकार आराधना करके सिद्ध हुए हैं; उनके केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों के भेद को जानकर निर्वाण की परम्परा की हेतुभूत परमभक्ति जो आसन्नभव्य जीव करता है; उस मुमुक्षु को व्यवहारनय से निर्वाण भक्ति है। "
इस गाथा और उसकी टीका के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“ कारणपरमात्मा के दृष्टि - ज्ञानपूर्वक उसी में स्थिर होना धर्म प्रगट करने की विधि है । इसी विधि से अभी तक अनन्त सिद्ध हुये हैं । उन्हें पहिचान कर उनकी भक्ति करना निर्वाण की परम्परा हेतुभूत व्यवहारभक्ति है; परन्तु अन्दर में निश्चय परमात्मस्वभाव होने पर ही उसे व्यवहारभक्ति कहा जाता है।