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नियमसार गाथा १३०
अब इस गाथा में यह कहते हैं कि पुण्य-पापरूप विकारीभावों को छोड़नेवाले को सदा सामायिक है। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र जो दु पुण्णं च पावं च भावं वज्जेदि णिच्चसो । तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।। १३० ।। ( हरिगीत )
जो पुण्य एवं पाप भावों के निषेधक हैं सदा ।
उन वीतरागी संत को जिन कहें सामायिक सदा ॥ १३० ॥
जो पुण्य और पापरूप भावों को सदा छोड़ता है, उसे सामायिक स्थायी है ह्र ऐसा केवली के शासन में कहा है।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "यह शुभाशुभ परिणामों से उत्पन्न होनेवाले सुकृत- दुष्कृतरूप (पुण्य-पापरूप ह्न भले-बुरे कार्यरूप) कार्यों से संन्यास की विधि का कथन है।
बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह के त्यागरूप लक्षण से लक्षित ( पहिचाने जानेवाले) परमजिनयोगीश्वरों के चरणकमलों का प्रक्षालन, पैरों का दबाना आदि वैयावृत्ति करने से उत्पन्न होनेवाली शुभपरिणति उपार्जित पुण्यकर्म (शुभकर्म) को तथा हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहसंबंधी परिणामों से उत्पन्न होनेवाले अशुभकर्म (पापकर्म) को; सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर के शिखामणि मुनिराज छोड़ते हैं; क्योंकि ये दोनों शुभाशुभ पुण्य-पापकर्म संसाररूपी स्त्री के विलास विभ्रम की जन्मभूमि के स्थान हैं।
शुभाशुभकर्मको, पुण्य-पाप के भावों को छोड़नेवाले परम वीतरागी सन्तों के केवलीमत सम्मत, सामायिक व्रत नित्य है । "
उक्त गाथा और उसकी टीका के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
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गाथा १३० : परमसमाधि अधिकार
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" सामायिक कहो, समाधि कहो या आत्मशान्ति कहो ह्र सभी एकार्थवाची है । समस्त शुभाशुभभाव तो नये कर्मबंध में कारण हैं, उन्हें छोड़कर आत्मा में एकाग्र होना सामायिक है। पुण्य-पापभाव में तो शान्ति है ही नहीं, उसके फल में भी शान्ति नहीं है ।
यहाँ पुण्य की बात में भी लोकोत्तर मुनिराज की सेवा - भक्ति की बात ली है, लौकिक सेवा की बात नहीं की। मुनिराज तो धर्म के उत्कृष्ट निमित्त हैं, इसलिए यहाँ मुनिराज की उत्कृष्ट बात ही ली है।
गृहस्थ तो मुनिराज की सेवा-भक्ति करते ही हैं; परन्तु एक मुनिराज भी दूसरे मुनिराज की सेवा करते हैं, पैर दबाते, शरीर साफ करते इत्यादि अनेक प्रकार से वैयावृत्ति करते हैं, यह भी शुभराग ही है। इस राग की कीमत मात्र इतनी ही है कि संसार में पुण्य मिले; परन्तु इस राग में आत्मा की शान्ति नहीं है।
गृहस्थ दशा में हो और महावीतरागी मुनिराज के प्रति भक्ति का भाव न आवे तो वह स्वच्छन्दी है और उस शुभभाव में ही धर्म मान ले तो वह भी अज्ञानी ही है।
हिंसादि अशुभभाव तथा भक्त्यादि शुभभाव ह्र ये दोनों ही भाव संसाररूपी स्त्री के विलास विभ्रम की जन्मभूमि है। अर्थात् पुण्य-पाप दोनों से समता उत्पन्न नहीं होती, परन्तु परिभ्रमणरूपी स्त्री के विलास का जन्म होता है।
तात्पर्य यह है कि पुण्य-पाप दोनों का फल संसार है और चिदानन्द स्वभावी शुद्धकारण परमात्मा का फल परम समता है। ह्र ऐसा जानक स्वभाव में एकाग्रता करना सामायिक है। जिसे देह से भिन्न चैतन्य का भान नहीं है, उसे सामायिक नहीं होता।"
गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति आदि के शुभभावों से उत्पन्न पुण्य और हिंसादि पापभावों से
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०६८-१०६९ ३. वही, पृष्ठ १०७०
२. वही, पृष्ठ १०६९-१०७०
४. वही, पृष्ठ १०७०-१०७१