________________
३१२
नियमसार अनुशीलन
(वीर )
कनक- कामिनी गोचर एवं हेयरूप यह मोह छली । इसे छोड़कर निर्मल सुख के लिए परम पावन गुरु से | धर्म प्राप्त करके हे आत्मन् निरुपम निर्मल गुणधारी । दिव्यज्ञान वाले आतम में तू प्रवेश कर सत्वर ही ॥ २७९ ॥ ( हरिगीत )
वस्तु के सत्यार्थ निर्णयरूप सम्यग्ज्ञान है। स्व-पर अर्थों का प्रकाशक वह प्रदीप समान है । वह निर्णयात्मक ज्ञान प्रमिति से कथंचित् भिन्न है । पर आतमा से ज्ञानगुण से तो अखण्ड अभिन्न है ||७३ ||१ (रोला )
बंध-छेद से मुक्त हुआ यह शुद्ध आतमा,
निजरस से गंभीर धीर परिपूर्ण ज्ञानमय । उदित हुआ है अपनी महिमा में महिमामय,
अचल अनाकुल अज अखंड यह ज्ञानदिवाकर ||७४|| ( हरिगीत )
सौभाग्यशोभा कामपीड़ा शिवश्री के वदन की । बढ़ावें जो केवली वे जानते सम्पूर्ण जग ।। व्यवहार से परमार्थ से मलक्लेश विरहित केवली । देवाधिदेव जिनेश केवल स्वात्मा को जानते || २७२ || अर्थान्तगत है ज्ञान लोकालोक विस्तृत दृष्टि है। हैं नष्ट सर्व अनिष्ट एवं इष्ट सब उपलब्ध हैं || ७५ ॥ * जिनवर कहें छद्मस्थ के हो ज्ञान दर्शनपूर्वक ।
पर केवली के साथ हों दोनों सदा यह जानिये ||७६ ॥ ४
१. महासेनदेव पण्डित द्वारा रचित श्लोक, ग्रंथ संख्या एवं श्लोक संख्या अनुपलब्ध है। २. समयसार : आत्मख्याति, छन्द १९२
३. प्रवचनसार, गाथा ६१
४. बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ४४
157
कलश पद्यानुवाद
( हरिगीत )
अज्ञानतम को सूर्यसम सम्पूर्ण जग के अधिपति । शान्तिसागर वीतरागी अनूपम सर्वज्ञ जिन ॥ संताप और प्रकाश युगपत् सूर्य में हों जिसतरह । केवली के ज्ञान दर्शन साथ हों बस उसतरह || २७३ || सद्बोधरूपी नाव से ज्यों भवोदधि को पारकर । शीघ्रता से शिवपुरी में आप पहुँचे नाथवर ॥
मैं आ रहा हूँ उसी पथ से मुक्त होने के लिए । अन्य कोई शरण जग में दिखाई देता नहीं || २७४ ||
आप केवलभानु जिन इस जगत में जयवंत हैं। समरसमयी निर्देहसुखदा शिवप्रिया के कंत हैं । मेरे शिवप्रिया के मुखकमल पर कांति फैलाते सदा । सुख नहीं दे निजप्रिया को है कौन ऐसा जगत में || २७५ || ( दोहा )
अरे भ्रमर की भांति तुम, शिवकामिनि लवलीन | अद्वितीय आत्मीक सुख पाया जिन अमलीन || २७६ ॥ ( मनहरण कवित्त )
जिसने किये हैं निर्मूल घातिकर्म सब । सुखवीर्य दर्शज्ञान धारी आतमा ॥ भूत भावी वर्तमान पर्याय युक्त सब ।
द्रव्य जाने एक ही समय में शुद्धातमा ॥ मोह का अभाव पररूप परिणमें नहीं ।
सभी ज्ञेय पीके बैठा ज्ञानमूर्ति आतमा ।। पृथक्-पृथक् सब जानते हुए भी ये ।
३१३
सदा मुक्त रहें अरहंत परमातमा ||७७ ||
१. प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिका, छन्द ४