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नियमसार गाथा १८५
यह गाथा नियम और उसके फल के उपसंहार की गाथा है। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र
णियमं णियमस्स फलं णिद्दिट्टं पवयणस्स भत्तीए । पुव्वावरविरोधो जदि अवणीय पूरयंतु समयण्हा ।। १८५ । । ( हरिगीत )
नियम एवं नियमफल को कहा प्रवचनभक्ति से ।
यदी विरोध दिखे कहीं समयज्ञ संशोधन करें ।। १८५ ॥ प्रवचन की भक्ति से यहाँ नियम और नियम का फल दिखाये गये हैं। यदि इसमें कुछ पूर्वापर विरोध हो तो आगम के ज्ञाता उसे दूर कर पूर्ति करें ।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“यह इस नियमसार शास्त्र के आरंभ में लिये नियम शब्द और उसके फल का उपसंहार है।
पहिले तो नियम शुद्धरत्नत्रय के व्याख्यान के रूप में प्रतिपादित किया गया और उसका फल निर्वाण के रूप में प्रतिपादित किया गया। यह सब कवित्व के अभिमान से नहीं किया गया; किन्तु प्रवचन की भक्ति से किया गया है। यदि इसमें कुछ पूर्वापर दोष हो तो आत्मा के जानकार परमकवीश्वर दोषात्मक पद का लोप करके उत्तम पद नियोजित करें। "
आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"मोक्षमार्ग तो शुद्धरत्नत्रय है और उसका फल परमनिर्वाण अर्थात् मोक्ष है। ऐसे मोक्षमार्ग का और मोक्ष का वर्णन श्री जिनेन्द्रदेव की वाणी में आया है और गणधरदेवों ने उसे कहा है। उस प्रवचन के प्रति
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गाथा १८५ : शुद्धोपयोगाधिकार
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भक्ति से मैंने इस शास्त्र में मोक्षमार्ग और मोक्ष का वर्णन किया है। आचार्यदेव ने कोई कविपने के अभिमान से यह रचना नहीं की है; परन्तु प्रवचन सम्बन्धी भक्ति से ही रचना की है। उसमें कुछ व्याकरणादि की भूल हो तो उसे सुधार लेना। मूलभूत तत्त्व में तो भूल है ही नहीं। "
उपसंहार की इस गाथा व उसकी टीका में कहा गया है कि मैंने शुद्ध रत्नत्रयरूप नियम और मुक्तिरूप उसका फल का निरूपण जिनागम की भक्ति से किया है। इसमें कहीं कोई पूर्वापर विरोध दिखाई दे तो आत्म स्वरूप के जानकार इसमें उचित संशोधन अवश्य करें ।
भाव में तो कोई गलती होने की संभावना नहीं है; यदि शब्दादि प्रयोगों में कुछ कमी रह गई हो तो उसकी पूर्ति का अनुरोध परम्परानुसार आचार्यदेव ने किया है ।। १८५ ।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं, जो इसप्रकार है ह्र
( मालिनी )
जयति नियमसारस्तत्फलं चोत्तमानां हृदयसरसिजाते निर्वृतेः कारणत्वात् । प्रवचनकृतभक्त्या सूत्रकृद्भिः कृतो यः
स खलु निखिलभव्यश्रेणिनिर्वाणमार्ग: ।। ३०५ ।। (रोला )
नियमसार अर तत्फल यह उत्तम पुरुषों के ।
हृदय कमल में शोभित है प्रवचन भक्ति से ॥ सूत्रकार ने इसकी जो अद्भुत रचना की ।
भविकजनों के लिए एक मुक्तीमारग है ।। ३०५ || निवृति (मुक्ति) का कारण होने से यह नियमसार और उसका फल उत्तम पुरुषों के हृदयकमल में जयवंत है। प्रवचन भक्ति से सूत्रकार ने जो किया है, वह वस्तुतः समस्त भव्यसमूह को निर्वाण का मार्ग है। इस छन्द में टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव कह रहे हैं कि
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५३६