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नियमसार अनुशीलन देव, मनुष्य, पशु आदिकृत उपसर्ग परमतत्त्व में नहीं हैं। चिदानन्द तो ज्ञानशक्ति से भरा हुआ है।
त्रिकाली स्वभाव में प्रतिकूलता और उपसर्ग नहीं है - ऐसा भान करके, उसमें लीनता होने पर पूर्णदशा होती है; उस पूर्णदशा में भी उपसर्ग नहीं है। आत्मा अथवा मुक्तजीव के मोह नहीं है।'
सिद्धजीवों में विस्मयता (आश्चर्य का भाव) नहीं है। इस आत्मा में भी कौतूहलता नहीं है। करोड़पति सेठ भिखारी और भिखारी करोड़पति हो जाता है; फिर भी आत्मा को कोई आश्चर्य नहीं होता । मानव मरकर देव तथा देव मरकर तिर्यंच्च हो जाता है; तो भी आत्मा को कुछ विस्मय नहीं होता। __ आत्मा में निन्द्रा नहीं है। मैं चिदानन्द ज्ञानकुण्ड हैं। ऐसे भान बिना आत्मा अनन्तकाल से पर्याय में सो रहा है, राग-द्वेष की निद्रा में सो रहा है। यह कृत्रिमता इसने स्वयं उत्पन्न की है; परन्तु भगवान आत्मा तो ज्ञानज्योति है; उसमें निद्रा नहीं है, मुक्तदशा में भी निद्रा नहीं है।
आत्मा में क्षुधा नहीं है। पेट में क्षुधा की अवस्था होती है; परन्तु यदि यह जीव उसका लक्ष न करते हुए अन्तर चिदानन्द का लक्ष करे तो क्षुधा दिखाई ही नहीं देती; क्योंकि आत्मा में क्षुधा नहीं है और सिद्धों में भी क्षुधा नहीं है।
परमतत्त्व में ही निर्वाण है। आत्मा परमतत्त्व है। उसका ज्ञान करके जो दशा प्रगट हुई, उसमें इन्द्रियादि नहीं हैं। वास्तव में मुक्ति तो आत्मा की आनन्ददशा में है। बाह्य क्षेत्र में मुक्ति नहीं है।"
इस गाथा और उसकी टीका में भी विगत गाथा और उसकी टीका के समान गाथा में तो मात्र इतना ही कहा है कि उक्त परमतत्त्व में इन्द्रियाँ नहीं हैं, उपसर्ग नहीं है, मोह नहीं है, विस्मय, निद्रा, क्षुधा-तृषा नहीं है; अत: वही निर्वाण है; किन्तु टीका में उक्त विशेषणों को सहेतुक सिद्ध किया गया है।१८०|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५००
२. वही, पृष्ठ १५०१ ३. वही, पृष्ठ १५०१
४. वही, पृष्ठ १५०२
गाथा १८० : शुद्धोपयोगाधिकार
२६७ इसके बाद तथा अमृताशीति में भी कहा है' ह्र ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है ह्र
(मालिनी) ज्वरजननजराणां वेदना यत्र नास्ति
परिभवति न मृत्यु गतिर्नो गतिर्वा । तदतिविशदचित्तैर्लभ्यतेऽङ्गेऽपि तत्त्वं, गुणगुरुगुरुपादाम्भोजसेवाप्रसादात् ।।८७।।'
(रोला) जनम जरा ज्वर मृत्यु भी है पास न जिसके।
गती-अगति भी नाहिं है उस परमतत्त्व को॥ गुरुचरणों की सेवा से निर्मल चित्तवाले।
तन में रहकर भी अपने में पा लेते हैं ।।८७|| जिस परमतत्त्व में ज्वर, जन्म और जरा (बुढापा) की वेदना नहीं है; मृत्यु नहीं है और गति-अगति नहीं है; उस परमतत्त्व को अत्यन्त निर्मल चित्तवाले पुरुष, शरीर में स्थित होने पर भी गुण में बड़े ह्र ऐसे गुरु के चरण कमल की सेवा के प्रसाद से अनुभव करते हैं।
उक्त छन्द के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न ___ “आत्मा की वर्तमान पर्याय को गौण करके ध्रुवस्वभाव को देखें तो उसमें ज्वर नहीं है, जन्म नहीं है, वृद्धावस्था नहीं है - इत्यादि समस्त विकारों से रहित आत्मतत्त्व है। भाई! ये सारी अवस्थायें तो शरीर की अवस्थायें हैं। आत्मा में ये अवस्थायें नहीं हैं। जिसप्रकार चन्द्रमा और सूर्य कभी मरते नहीं हैं; उसीप्रकार आत्मा भी कभी मरता नहीं है। उसके गमन-आगमन नहीं है, आत्मा कहीं जाता नहीं है और कहीं से आता भी नहीं है। ऐसे आत्मा को ज्ञानी जीव अनुभवते हैं।
ज्ञानी गुरुओं के निमित्त से जब जीव धर्म पाता है, तब उनकी १. योगीन्द्रदेवकृत अमृताशीति, छन्द ५८
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