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नियमसार अनुशीलन सिद्धदशा के कारणस्वरूप मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है तथा उसका फल सिद्धपद भी निरालंब है। "
मूल गाथा में त्रिकाली ध्रुव आत्मा के जितने विशेषण दिये गये हैं; उन सभी की सहेतुक सार्थकता टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव ने स्पष्ट कर दी है; उसे यदि रुचिपूर्वक गंभीरता से पढें तो सब कुछ स्पष्ट हो जाता है । अत: उक्त टीका के भाव को गहराई से समझने का विनम्र अनुरोध है ।
रही-सही कसर स्वामीजी ने पूरी कर दी है। ध्यान रहे स्वामीजी ने उक्त सभी विशेषणों को आत्मा के साथ-साथ सिद्धदशा पर भी गठित किया है। अत: अब कुछ कहने को शेष नहीं रह जाता। सच्चे आत्मार्थी को इतना ही पर्याप्त है ।। १७८ ।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव 'तथा अमृतचन्द्र आचार्यदेव के द्वारा भी कहा गया है' ह्र ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है ह्र
( मंदाक्रांता )
आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमंधा: । एतैतेत: पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति ।। ८६ । । * ( हरिगीत ) अपदपद में मत्त नित अन्धे जगत के प्राणियो । यह पद तुम्हारा पद नहीं निज जानकर क्यों सो रहे । जागो इधर आओ रहो नित मगन परमानन्द में। हो परमपदमय तुम स्वयं तुम स्वयं हो चैतन्यमय ॥८६॥ आचार्यदेव संसार में मग्न जीवों को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि हे जगत के अन्धे प्राणियो! अनादि संसार से लेकर आजतक पर्यायपर्याय में ये रागी जीव सदा मत्त वर्तते हुए जिस पद में सो रहे हैं; वह पद अपद है, अपद है ह्र ऐसा तुम जानो ।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४७९
२. समयसार : आत्मख्याति, छन्द १३८
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गाथा १७८ : शुद्धोपयोगाधिकार
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हे भव्यजीवो ! तुम इस ओर आओ, इस ओर आओ; क्योंकि तुम्हारा पद यह है, यह है; जहाँ तुम्हारी शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु स्वयं के रस से भरी हुई है और स्थाईभावत्व को प्राप्त है, स्थिर है, अविनाशी है ।
उक्त छन्द में तीन पद दो-दो बार आये हैं ह्न १. अपद है, अपद है; इधर आओ इधर आओ; और शुद्ध है, शुद्ध है। इन पदों की पुनरावृत्ति मात्र छन्द के अनुरोध से नहीं हुई है; अपितु इस पुनरावृत्ति से कुछ विशेष भाव अभिप्रेत है।
इसमें शुद्ध है, शुद्ध है; पद की पुनरावृत्ति से द्रव्यशुद्धता और भावशुद्धता की ओर संकेत किया गया है। अपद है, अपद है और इधर आओ, इधर आओ पदों से अत्यधिक करुणाभाव सूचित होता है ॥ ८६ ॥
इसके उपरान्त टीकाकार मुनिराज 'तथा हि' लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र
( शार्दूलविक्रीडित )
भावा: पंच भवन्ति येषु सततं भाव: पर: पंचम: स्थायी संसृतिनाशकारणमयं सम्यग्दृशां गोचर: । तं मुक्त्वाखिलरागरोषनिकरं बुद्ध्वा पुनर्बुद्धिमान् एको भाति कलौ युगे मुनिपति: पापाटवीपावकः ।। २९७ ।। ( वीर )
भाव पाँच हैं उनमें पंचम परमभाव सुखदायक है। सम्यक् श्रद्धा धारकगोचर भवकारण का नाशक है । परमशरण है इस कलियुग में एकमात्र अघनाशक है। इसे जान ध्यावें जो मुनि वे सघन पापवन पावक हैं ।। २९७ ।। भाव पाँच हैं; जिनमें संसार के नाश का कारण यह परम पंचमभावपरमपारिणामिकभाव निरन्तर रहनेवाला स्थायी भाव है और सम्यग्दृष्टियों के दृष्टिगोचर है। समस्त राग-द्वेष को छोड़कर तथा उस परमपंचमभाव को जानकर जो मुनिवर उसका उग्र आश्रय करते हैं; वे मुनिवर ही इस कलियुग में अकेले पापरूपी भयंकर जंगल जलाने में, भस्म कर देने में समर्थ अग्नि के समान हैं।