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नियमसार अनुशीलन कहाँ रही? अतः हे भगवान्! तुम्हारे अलावा अन्य कोई सर्वज्ञ नहीं है। " आचार्य समन्तभद्र के उक्त छन्द में यह कहा गया है कि यह सम्पूर्ण जगत उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य लक्षणवाला है ह्न आपका यह कथन आपकी सर्वज्ञता का चिह्न है; क्योंकि सर्वज्ञ के अलावा कोई भी डंके की चोट यह बात नहीं कह सकता । सर्वज्ञ भगवान के प्रत्यक्ष ज्ञान में वस्तु का ऐसा स्वरूप आता है। क्षयोपशम ज्ञानवाले तो इसे सर्वज्ञ के वचनों के अनुसार लिखित आगम और अनुमान से ही यह जानते हैं । आगम और अनुमान प्रमाण परोक्षज्ञान हैं।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र
( वसंततिलका )
जानाति लोकमखिलं खलु तीर्थनाथः स्वात्मानमेकमनघं निजसौख्यनिष्ठम् । नो वेत्ति सोऽयमिति तं व्यवहारमार्गाद्
वक्तीति कोऽपि मुनिपो न च तस्य दोष: ।। २८५ ।। ( हरिगीत )
रे केवली भगवान जाने पूर्ण लोक- अलोक को । पर अनघ निजसुखलीन स्वातम को नहीं वे जानते ॥ यदि कोई मुनिवर यों कहे व्यवहार से इस लोक में ।
उन्हें कोई दोष न बोलो उन्हें क्या दोष है || २८५ || 'तीर्थंकर भगवान सर्वज्ञदेव निश्चयनय से सम्पूर्ण लोक को जानते हैं और वे पुण्य-पाप से रहित अनघ, निजसुख में लीन एक अपनी आत्मा को नहीं जानते' ह्न ऐसा कोई मुनिराज व्यवहारमार्ग से कहे तो उसमें उनका कोई दोष नहीं है।
उक्त छन्द में उसी बात को दुहराया गया है; जो गाथा और उसकी टीका में कही गई है। अतः उक्त छन्द में प्रतिपादित परम तत्त्व के संदर्भ में यहाँ कुछ विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं है।
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४२१
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नियमसार गाथा १७०
विगत गाथा में केवली भगवान के संदर्भ में व्यवहारनय के कथन को प्रस्तुत किया गया था। अब इस गाथा में 'जीव ज्ञानस्वरूप है' यह सिद्ध करते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र
णाणं जीवसरूवं तम्हा जाणेइ अप्पगं अप्पा ।
अप्पाणं ण वि जाणदि अप्पादो होदि विदिरित्तं ।। १७० ।। ( हरिगीत )
ज्ञान जीवस्वरूप इससे जानता है जीव को ।
जीव से हो भिन्न वह यदि नहीं जाने जीव को ॥ १७० ॥ जीव का स्वरूप ज्ञान है, इसलिए आत्मा आत्मा को जानता है। यदि ज्ञान आत्मा को नहीं जाने तो वह आत्मा से भिन्न सिद्ध होगा।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"इस गाथा में 'जीव ज्ञानस्वरूप है' ह्न इस बात को तर्क की कसौटी पर कसकर सिद्ध किया गया है।
प्रथम तो ज्ञान आत्मा का स्वरूप है; इसकारण जो अखण्ड-अद्वैत स्वभाव में लीन है, निरतिशय परम भावना से सनाथ है, मुक्ति सुन्दरी का नाथ है और बाह्य में जिसने कौतूहल का अभाव किया है; ऐसे निज परमात्मा को कोई भव्य आत्मा जानता है। वस्तुत: यह स्वभाववाद है। इसके विपरीत विचार (वितर्क) विभाववाद है, यह प्राथमिक शिष्य का अभिप्राय है।
यदि कोई कहे कि यह विपरीत विचार (वितर्क) किसप्रकार है ? तो कहते हैं कि वह इसप्रकार है ह्र
पूर्वोक्त ज्ञानस्वरूप आत्मा को आत्मा वस्तुतः जानता नहीं है, आत्मा तो मात्र स्वरूप में ही अवस्थित रहता है।
जिसप्रकार उष्णता स्वरूप में स्थित अग्नि को क्या अग्नि जानती है ?