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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व प्रश्न- ध्रुव में ऐसी क्या विशेषता है ? जिससे उसमें अपनापन प्रकट हो ?
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उत्तर - ध्रुवभाव तो नित्यभाव है और उत्पाद-व्यय अनित्य स्वभावी हैं। अस्तित्व तो सभी को नित्य ही इष्ट है। अपने अस्तित्व का नाश तो किसी को भी इष्ट नहीं होता। इसके अतिरिक्त ध्रुवभाव तो मेरा और सिद्ध भगवान का समान ही है, अन्तर है तो मात्र उत्पादव्ययवाली पर्याय में है। सिद्ध भगवान स्व एवं पर के ज्ञायक होते हुए भी किसी के कर्ता नहीं होते और अनन्तसुखी हैं। अतः मेरा भी ध्रुवभाव तो सिद्ध भगवान के समान ज्ञायक अकर्ता एवं अनाकुल सुख स्वभावी है। इसप्रकार सम्यक्त्वी अपने आत्मा को त्रिकाली ज्ञायक ध्रुव ही मानता है। अकर्ता तो नास्ति अपेक्षा कथन है। अकर्तापना तो ज्ञायक विशेषण में ही अन्तर्गभित है।
नाटक समयसार में भी कहा है कि -
"जानै सो कर्ता नहिं होई, कर्ता सो जानै नहीं कोई । "
इसप्रकार सर्वप्रथम आत्मार्थी को अपने ध्रुव में सिद्धपने का विश्वास आता है। उस ही से सिद्ध भगवान बनने की रुचि जाग्रत होती है। ऐसी रुचि का होना ही, सम्यग्दर्शन प्रगट करने का बीजारोपण है।
जिनवाणी का कथन है "रुचिमेव सम्यक्त्वं" अर्थात् रुचि ही सम्यग्दर्शन है । ऐसी रुचि होते ही पुरुषार्थ भी रुचि को ही प्रोत्साहित करता है । " रुचि अनुयायी वीर्य" । रुचि की तारतम्यतानुसार वृद्धि
क्रमश: मिथ्यात्व - अनन्तानुबंधी के निषेक क्षीण होते जाते हैं, अन्ततः रुचि की पराकाष्ठा होने पर निर्विकल्प होकर उनका आत्यन्तिक अभाव हो जाता है और सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है।
सिद्ध बनने की रुचि वाला आत्मार्थी उपरोक्त उद्देश्य की पूर्ति
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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
के लिये, यथार्थ मार्ग समझना चाहता है। मार्ग समझने के लिये, भगवान अरहंत की दिव्यध्वनि द्वारा प्रसारित जिनवाणी का अध्ययन, सद्गुरुओं के उपदेश एवं ज्ञानीजनों का समागम प्राप्त करता है। उनके कथनों में अनेक विषय अनेक अपेक्षाओं को लेकर आते हैं, लेकिन आत्मार्थी की दृष्टि में तो अपने उद्देश्य की पूर्ति मुख्य होती है। पर्याय में सिद्धत्व प्रगट करने का उद्देश्य है । अतः ध्रुव में अपनत्वपूर्वक पर में कर्तृत्वबुद्धि का अभाव कर वीतरागता एवं ज्ञायकत्व की श्रद्धा द्वारा ज्ञेयमात्र के प्रति मध्यस्थ वृत्ति कैसे उत्पन्न हो। इस उद्देश्य की पूर्ति करनेवाले कथनों को तो उग्ररुचि के साथ ग्रहण करता है / सुनता है और उन्हें चिन्तन-मनन पूर्वक अपने ज्ञान में दृढ़ता पूर्वक धारण कर लेता है बांकी अन्य विषयों को गौण छोड़ देता है। इसप्रकार से मार्ग ग्रहणकर अपने ध्येय को प्राप्त करने के लिये देशना का विश्लेषण करता है।
जब देशना द्वारा प्राप्त उपदेश से अनेक विषयों में फैली हुई अपनी बुद्धि को सब ओर से समेटकर, मात्र एक त्रिकाली ज्ञायक ध्रुवभाव में अपनापन स्थापन करने का विषय रह जाए एवं बाकी विषय सहजरूप से गौण रह जावें, ऐसा वह अपने ज्ञान में विभाजन कर निर्णय कर लेता है; निर्णय करते समय ज्ञान परलक्ष्यी रहता है, फिर भी आत्मार्थी को अपने ध्येय पर पहुँचने का मार्ग जैसे-जैसे स्पष्ट होता जाता है, रुचि में भी तदनुसार उतरोत्तर वृद्धि होती जाती है एवं परिणति भी पर के आकर्षणों में ढ़ीली होती जाती है और क्रमशः इतनी बलिष्ठ हो जाती है कि वह आत्मलक्ष्यी पुरुषार्थ द्वारा अपने ज्ञायक में एकाग्र होकर अपने ध्येय को प्राप्त करने योग्य पात्रता प्रगट कर लेती है ।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि ध्येय को प्राप्त करने की पात्रता मात्र आत्मलक्ष्यी पुरुषार्थ को ही है, परलक्ष्यी ज्ञान के निर्णय मात्र को नहीं है। आत्मलक्ष्यी पुरुषार्थ में रुचि की उग्रता एवं परिणति