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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व दुःख का कारण मानते हैं। अत: रागादि मिटाने का प्रयास तो करते हैं; लेकिन यथार्थ मार्ग के अभाव में शास्त्रों का अध्ययन अपनी दृष्टि रखकर करते है, उनका मानना होता है कि चारों अनुयोगों में बताया मार्ग अनुसरण करने योग्य है। अत: उपयोगरमाने के लिये प्रथमानुयोग के ग्रन्थ पढ़ते हैं, द्रव्यानुयोग के अनुसार आत्मा को शुद्ध मानकर, रागादिभावों का अभाव करना चाहते हैं, करणानुयोग के शास्त्र पढ़कर, रागादि का कारण द्रव्यकर्मों के उदय को मानकर, उनके नाश का उपाय चरणानुयोग में कथित निश्चय आचरण को न समझते हुए, व्यवहारचारित्र को ही उनके नाश का उपाय मानते हुए शरीरिक क्रिया काण्ड को ही वास्तविक धर्म मानकर, उनमें ही कर्तृत्वबुद्धि की मान्यता के साथ संलग्न रहते हैं। इस प्रकार वे जीव अपने आत्मा को कर्मों के आधीन मानकर, पराधीन बुद्धि पूर्वक प्रवर्तते हुए, सत्यार्थ मार्ग से अत्यन्त दूर वर्तते हुए, अमूल्य जीवन निष्फल खो देते हैं।
जो जीव द्रव्यानुयोग के अनुसार अनाकुलता लक्षण सुख के खजाने की खोज में संलग्न है, उनको एकांतवादी मिथ्यादृष्टि मानकर मिथ्यामार्गी जानते-मानते व कहते हैं। ऐसे जीव भी सत्यार्थ मार्ग प्राप्त करने की पात्रता से अत्यन्त दूर वर्तते हुए, जीवन समाप्त कर देते हैं। तात्पर्य ऐसा है कि इसप्रकार की मान्यता वाले व्यक्तियों अथवा गुरुओं अथवा उपदेशकों से सावधान रहना चाहिये और अपने मार्ग से च्युत नहीं होना चाहिये।
उपरोक्त प्रकार के जीवों की ऐसी मान्यता होती है कि परद्रव्य की क्रिया जिनको आत्मा कर ही नहीं सकता, उनकी पर्याय का कर्ता तो उनका द्रव्य है, लेकिन अपने को उनका निमित्तकर्ता मानकर, उन्हीं के कर्तृत्व में संलग्न रहते हैं। सुख के खजाने की खोज नहीं करते। तात्पर्य यह है कि परमुखापेक्षी वृत्ति द्वारा, वह ध्रुवरूपी खजाना किसी प्रकार भी प्राप्त नहीं होगा।
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
71 उपरोक्त कथन सुनकर आत्मार्थी जीव उपरोक्त प्रकार से मार्ग भ्रष्ट होने से बचने के लिये पूर्णतया सावधान हो जाता है और पुन: प्रश्न करता है। अनन्त सुख का भण्डार ध्रुव ही है ऐसी श्रद्धा
होने का उपाय प्रश्न - हे गुरुदेव ! ध्रुव रहनेवाला सुख का खजाना मेरा ही ध्रुव स्वभाव है और वह ध्रुवभाव कभी साथ छोड़ता भी नहीं, प्रत्येक पर्याय में साथ रहता है; ऐसा आपने बताया और मुझे भी ऐसा ही लगता है। लेकिन फिर भी मुझे ऐसा विश्वास क्यों नहीं होता ? मेरी वृत्तियाँ तो निरंतर सुख की खोज में बाह्य परपदार्थों की ओर ही आकृष्ट रहती हैं ? अतः अपने ध्रुव का विश्वास कैसे हो ? कृपाकर बताइये।
उपरोक्त प्रश्न उत्पन्न होने के समय आत्मार्थी की रुचि अनाकुलता लक्षण सुख प्राप्त करने के लिये कितनी उग्र हो गई होगी; इसका अनुमान तो हम कर ही सकते हैं। हमारा यह प्रकरण मुख्यत: रुचि की उत्तरोत्तर सहज बढ़ने वाली उग्रता को बताने वाला प्रकरण है। अब वह आत्मार्थी प्रत्येक वचन को अमृत समान मानकर तीव्र जिज्ञासापूर्वक, रुचि के साथ ग्रहण करता है। ऐसे आत्मार्थी की रुचि देखकर श्रीगुरु भी समझाते हैं।
उत्तर - श्रीगुरु समझाते हैं कि हे भव्य ! तू यह तो समझकर निर्णय कर ही चुका है कि ध्रुवतत्त्व तो प्रत्येक आत्मा का समान ही है। वर्तमान में सिद्ध भगवान की आत्मा के ध्रुव में और तेरे ध्रुव में किसी प्रकार का किञ्चित् मात्र भी अन्तर नहीं है। अन्तर तो इतना ही है कि सिद्ध की आत्मा ने ध्रुव में भरे अटूट भण्डार को सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा खोल लिया और उसमें भरे अनंतसुख-अनंतज्ञान