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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व अंगीकार किया है। (५) वह, अपने और परद्रव्यों के आकारों को प्रकाशित करने की सामर्थ्य होने से जिसने समस्त रूप को प्रकाशने वाली एकरूपता प्राप्त की है, ऐसा है। (६) वह, अन्य द्रव्यों के जो विशिष्ट गुण अवगाहन गति-स्थिति-वर्तना हेतुत्व और रूपित्व है, उनके अभाव के कारण और असाधारण चैतन्य रूपता रूपस्वभाव के सद्भाव कारण इन पाँच द्रव्यों से भिन्न है (७) वह, अनन्त अन्य द्रव्यों के साथ अत्यन्त एक क्षेत्रावगाह रूप होने पर भी अपने स्वरूप सेन छूटने के कारण टकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभाव रूप से है। ऐसा जीव नामक समय है।"
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उपरोक्त कथित सातों प्रकार की सामर्थ्य सहित जीव ही अर्थात् मेरा आत्मा ही निरंतर परिणमता रहता है। इनके सभी ७ बोलों का विस्तार करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती, क्योंकि इन सबके अभिप्राय में तो आत्मार्थी पूर्व अभ्यास के द्वारा भलीभाँति परिचित हैं। इन ७ में से वर्तमान में हमारे अन्वेषण में मात्र दूसरे एवं पाँचवें बोल के संबंध में विस्तारपूर्वक समझना रहेगा। आत्मार्थी इनके समझने में अपने ध्यान (उपयोग ) को केन्द्रित रखें।
आत्मा दर्शन - ज्ञान ज्योति स्वरूप है ।
उपरोक्त सामर्थ्य आत्मा के जानते हुये परिणमन करने वाले समय के त्रैकालिक लक्षण रूप परिणमन की विशेषता को स्पष्ट करता है। आत्मा जानता तो है लेकिन सामान्य विशेषात्मक ज्योति स्वरूप है अर्थात् प्रकाशन करती है। तात्पर्य यह है कि ज्योति अपने आप में रहते हुए प्रकाश करती है और जानने शब्द से ऐसा भ्रम होने की शंका हो जाती है कि जैसे आत्मा अपने से बाहर जाकर जानता है। इसलिये यह परिभाषा महत्त्वपूर्ण है, आवश्यकता होने पर विशेष स्पष्टीकरण के लिये आगे चर्चा करेंगे।
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
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आत्मा की ज्ञान अर्थात् जानने की सामर्थ्य आत्मा की असाधारण सामर्थ्य है इसकी असाधारणता इस ही से सिद्ध होती है कि आत्मा की विशेषताओं को बतानेवाली समयसार में कही गई ४७ शक्तियों में से ६ शक्तियाँ तो इस जाननक्रिया की विशेषता को ही बताती हैं। तथा उपरोक्त सामर्थ्य नं. ५ भी इसी जानन क्रिया की कार्य प्रणाली की ही विशेषता को स्पष्ट करती है।
१. जीवत्व शक्ति २. चिति शक्ति ३. द्रशि शक्ति ४. ज्ञान शक्ति ५. सर्वदर्शित्व शक्ति और ६. सर्वज्ञत्वशक्ति - इसप्रकार छह शक्तियाँ हैं । सूक्षमता से विचार करें तो आत्मा की अनन्त शक्तियों में से बहुभाग शक्तियाँ, आत्मा की जाननक्रिया के स्वाभाविक परिणमन की सहयोगी ही हैं। इस पर तो विस्तार से चर्चा भाग ४ के प्रकरणों
की जा चुकी है। अतः यहाँ पुनरावृत्ति नही करेंगे। यहाँ तो हमें मिथ्या मान्यता का अभाव करने के लिये चर्चा करनी है। इसमें ज्ञान जनन क्रियाका समझना महत्त्वपूर्ण है; इस दृष्टिकोण से चर्चा की
है।
ज्ञान की स्व-पर-प्रकाशकता, किसप्रकार ?
बोल नं. ५ इसप्रकार है- अपने और परद्रव्यों के आकारों को एकरूपतापूर्वक प्रकाशित करने की सामर्थ्य ॥ ५ ॥
उपरोक्त सामर्थ्य जाननक्रिया के स्वरूप को स्पष्टतापूर्वक बतलाने वाली सामर्थ्य है । यह सामर्थ्य जाननक्रिया की कार्य प्रणाली को स्पष्ट करने वाली है जो आत्मा का त्रैकालिक लक्षण बताया था, उस ही जानन क्रिया का यह स्वरूप है चाहे । निगोद का जीव हो और चाहे सिद्ध भगवान का आत्मा हो, सबका स्वभाव जानते हुये परिणमना ही तो होता है और उन सबकी जाननक्रिया उपरोक्त प्रकार की होती है।