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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व दूसरा पक्ष यह भी कहा गया कि देखने में भी ऐसा आता है, यह भी वास्तव में सत्य नहीं है; क्योंकि देखने वाले दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं एक तो अज्ञानी जीव होते हैं, जो विश्वव्यवस्था एवं वस्तु व्यवस्था से अपरिचित होते हैं; मात्र उन ही को ऐसा दिखता है लेकिन दूसरे ऐसे व्यक्ति होते हैं, जिनको पूर्व कथित जैन सिद्धांतों पर विश्वास अर्थात् श्रद्धा है। ऐसे व्यक्ति तो वास्तविक दृष्टि वाले (सिद्धांतपूर्वक देखने वाले) होते हैं। ऐसे व्यक्तियों को ऐसे कथन व परिणमन भ्रमित नहीं करते; उनको तो वे सब कार्य, वस्तु के सहज रूप से बनने वाले स्वतंत्र निमित्त-नैमित्तिक संबंध दिखते हैं और उनको तो कार्यरूप परिणमन करनेवाला द्रव्य ही कार्य का करने वाला दिखता है। विश्व की व्यवस्था के अनुसार, हर एक कार्य के संपन्न होने पर पाँच प्रकार की स्थिति सहज रूप से बनती ही बनती है, जिनको ‘पाँच समवाय' के नाम से जिनवाणी में बताया गया है - समझाया गया है। (इसका विस्तार से कथन “वस्तु स्वातंत्र्य' तथा प्रथम भाग में किया गया है, वहाँ से समझ लेना)
समवायों में एक 'निमित्त' नाम का समवाय भी है, जो कि अन्य द्रव्य होता है। उस निमित्त को मिलाना नहीं पड़ता। मिलाने पर मिलता हो तो जो मिलावें, उन सभी को सफल हो जाना चाहिये सो ऐसा देखा नहीं जाता इसलिये ऐसी मान्यता विपरीत है वह तो सहज रूप से छहों द्रव्यों के परिणमनों में रहनेवाली विश्वव्यवस्था है इसलिये वह मिलती भी अवश्य ही है, रोकने से रोकी भी नहीं जा सकती तथा मिलाने से प्राप्त भी नहीं कराई जा सकती। इस प्रकार वास्तविक दृष्टिवाले को तो वह कार्य इसी प्रकार होता हुआ दिखता है। लौकिक भाषा में समझाने के लिये निमित्त की मुख्यता से कहा जाता है तो भी श्रद्धा वैसी नहीं की जाती। समझाने को लौकिक में तो इसप्रकार कहा जावेगा, परन्तु श्रद्धा नहीं डगमगानी चाहिये।
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
29 इसप्रकार के तर्क-वितर्कों द्वारा विशेष दृढ़तापूर्वक किये जाने वाले निर्णय से रुचि की उग्रता भी बढ़ जाती है और श्रद्धा भी दृढ़ इतनी हो जाती है कि वह उग्र पुरुषार्थ द्वारा परद्रव्यों की ओर से सिमटकर मात्र अपने द्रव्य में सीमित हो जाती है। वह परद्रव्यों के कर्तृत्व की मान्यता के कारण उत्पन्न होने वाले विकल्पों की निरर्थकता की श्रद्धा हो जाने से विश्व के कर्तृत्व से निर्भार होकर सिमट जाता है। ऐसे आत्मार्थी का पुरुषार्थरुचि की उग्रता के साथ अपने द्रव्य के अनुसंधान पूर्वक वीतरागता प्रगट करने का मार्ग ढूँढने की ओर अग्रसर हो जाता है। जिनवाणी का वाक्य है "रुचि अनुयायी वीर्य' तदनुसार वीर्य अर्थात् पुरुषार्थ सब ओर से सिमटकर मात्र अपने द्रव्य की ओर सीमित हो जाता है। आत्मार्थी ने उपरोक्त निर्णय बहुत सोच-समझ कर चिंतनमनन द्वारा परीक्षा करके किया है। इसलिये अब उसके निर्णय को कोई भ्रमित नहीं कर सकता । फलत: रुचि एवं पुरुषार्थ सब ओर से सिमटकर मात्र स्वद्रव्य के अनुसंधान में ज्ञान सूक्ष्म होकर रुचि की उग्रता के साथ लग जाता है। फलत: सफलता भी शीघ्र प्राप्त कर लेता है। स्वद्रव्य की खोज पूर्वक आत्मानुभूति का उपाय
उपरोक्त प्रकार के निर्णय को प्राप्त आत्मार्थी अपनी रुचि एवं पुरुषार्थ को सब ओर से समेटकर और अपने आत्मद्रव्य में सीमित होकर विचार करता है। उसको यह विश्वास तो जाग्रत हो ही चुका है कि आत्मा में होने वाली आकुलता का अभाव होने से शान्ति (निराकुलता रूपी सुख) मुझे मेरे में से ही प्राप्त होगा। ऐसी श्रद्धा से उसकी रुचि उग्रता के साथ खोज करती है। वह विचारता है कि विश्व के सभी द्रव्यों के समान, मैं भी "उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्' स्वभावी द्रव्य हूँ। मेरी आत्मा में बसी अनन्त शक्तियाँ (गुण-सामर्थ्य
आदि) सब मेरे द्रव्य में ध्रुव-स्थाई-अपरिवर्तनीय रहते हैं। उन सहित द्रव्य उसी समय उत्पाद-व्यय करता हुआ पलटता भी रहता है।