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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व है। ऐसा ज्ञान ही सर्वज्ञता को प्राप्त होता है। ऐसी सर्वज्ञता सिद्ध भगवान की पर्याय में प्रगट है और मेरे ध्रुव स्वभाव में निरन्तर विद्यमान है। अब मुझे वह सर्वज्ञता पर्याय में प्रगट करना है। इस विषय की विस्तार से चर्चा आगे करेंगे।
देशनालब्धि उपरोक्त उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये, मार्ग समझने को जो भी पुरुषार्थ किया जावे, वही देशनालब्धि है। उद्देश्य विहीन शास्त्रों का स्वाध्याय करना मात्र, वह देशनालब्धि नहीं है; क्योंकि देशनालब्धि तो सम्यक्त्वसन्मुख जीव को ही होती है। सम्यक्त्व का विषय है - अपने त्रिकाली ज्ञायक ध्रुव स्वरूप में ही अपनेपन की श्रद्धा । इसलिये जो जीव उक्त सम्यक्त्व के विषय को सन्मुख करके अध्ययन करता है, वही जीव सम्यक्त्व सन्मुख होकर, देशनालब्धि प्रारम्भ करने वाला होता है। जिनवाणी के अध्ययन करने की पद्धति आदि विषयों पर विस्तार से चर्चा सुखी होने के उपाय के भाग १ में की गई है, वहाँ से जान लेवें। तात्पर्य यह है कि अपना उद्देश्य ज्ञायक ध्रुव आत्मतत्त्व में अपनापन स्थापन करना है, उद्देश्य की पूर्ति हेतु अपने ध्येय को प्राप्त करने का मार्ग समझने के जो भी प्रयास किये जावें, वे सब देशनालब्धि
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
23 है, उसी प्रकार आत्मार्थी भी अपना प्रयोजन सिद्ध करने वाले विषयों को रुचिपूर्वक ग्रहण कर लेता है; बाकी विषय रुचि रहित ज्ञान में आने से धारणा में नहीं रह पाते।
भगवान अरहंत की दिव्यध्वनि में तो द्वादशांग आता है, उस ही का वर्णन जिनवाणी द्वारा प्राप्त है। उसमें भी अनेक अपेक्षाओं सहित अनेक प्रकार के कथन होते हैं; उनमें से मात्र अपने वीतरागतारूपी प्रयोजन सिद्ध करने वाले कथनों को छाँटकर निकालना ही समस्त द्वादशांग के अध्ययन का सार है। ऐसे कथनों को कैसे छाँटकर निकालना, उसकी विधि के सम्बन्ध में तो सुखी होने के उपाय के भागों में विस्तारपूर्वक वर्णन कर चुके हैं। अत: उसकी पुनरावृत्ति यहाँ नहीं करेंगे, यहाँ तो मुख्यता से इस विषय पर बल देना है कि उपरोक्त अध्ययन की प्रणाली भी उग्ररुचि के पृष्टबल के बिना आत्मानुभव का मार्ग प्रशस्त करने में सहायक नहीं हो सकेगी, रुचि का पृष्टबल ही प्रयोजनभूत विषय को मुख्य रखते हुए, अन्य विषयों को गौण करता जाता है।
जिनवाणी में रुचि शब्द का प्रयोग चारित्र गुण की मुख्यता से भी होता है। उसका वाच्य होता है, किसी वस्तु के अच्छे लगने रूप आकर्षण; लेकिन मोक्षमार्ग में तथा मुख्यरूप से इन प्रकरणों में तो श्रद्धागुण की अपेक्षा ही रुचि का प्रयोग किया गया है। इसका वाच्य है अपनेपन की मान्यता द्वारा उत्पन्न होने वाला सहज आकर्षण, जैसे किसी वृद्ध को पुत्र के अभाव में अन्य के पुत्र को दत्तक लेने पर उसके प्रति वर्तनेवाला सहज आकर्षण होता है। रुचि शब्द का प्रयोग, श्रद्धागुण की मुख्यता से प्रवचनसार में भी किया गया है एवं पूज्य गुरुदेव श्री ने अपने प्रवचनों में अनेक स्थानों पर किया है।
अन्त में जब वीतरागता का उत्पादक मात्र एक ही विषय रह
रुचिपूर्वक उपदेश का ग्रहण ही देशनालब्धि है
उपरोक्त दशा प्राप्त आत्मार्थी की आत्मानुभव प्राप्त करने की पिपासा (जिज्ञासा) इतनी उग्र हो जाती है कि जिनवाणी के हर एक कथन अथवा वक्ता के उपदेश में से, वह ऐसे विषयों को रुचि के साथ इस प्रकार छांटकर पकड़ लेता है, जैसे हंस पक्षी क्षीर और नीर में से मात्र क्षीर को तो ग्रहण कर लेता है बाकी नीर (पानी) को छोड़ देता