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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व अपूर्वकला" कैसे प्राप्त हो, उसका स्पष्टीकरण पंचास्तिकाय की गाथा १७२ की टीका में निम्नप्रकार बताया है -
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"यह, साक्षात् मोक्षमार्ग सार- सूचन द्वारा शास्त्र तात्पर्यरूप उपसंहार है।" (अर्थात् यहाँ साक्षात् मोक्षमार्ग का सार क्या है, उसके कथन द्वारा शास्त्र का तात्पर्य रूप उपसंहार किया है ।)
साक्षात् मोक्षमार्ग में अग्रसर सचमुच वीतरागपना है, इसलिये वास्तव में " अर्हतादिगत राग को भी, चंदन वृक्षसंगत अग्नि की भाँति, देवलोकादि के क्लेश की प्राप्ति द्वारा अत्यन्त अंतर्दाह का कारण समझकर, साक्षात् मोक्ष का अभिलाषी महाजन सबकी ओर के राग को छोड़कर, अत्यन्त वीतराग होकर, जिसमें उबलती हुई दुःख-सुख की कल्लोलें उछलती हैं और जो कर्माग्नि द्वारा तप्त, खलबलाते हुए जल समूह की अतिशयता से भयंकर है - ऐसे भवसागर को पार उतरकर, शुद्धस्वरूप परमामृत समुद्र को अंवगाह कर, शीघ्र निर्वाण को प्राप्त करता है।
विस्तार से बस हो । जयवंत वर्ते वीतरागता, जो कि साक्षात् मोक्षमार्ग का सार होने से शास्त्रतात्पर्यभूत है ।
तात्पर्य दो प्रकार का होता है -सूत्रतात्पर्य और शास्त्रतात्पर्य । उसमें, सूत्रतात्पर्य प्रत्येक सूत्र में प्रत्येक गाथा में प्रतिपादित किया गया है और शास्त्रतात्पर्य अब प्रतिपादित किया जाता है
सर्व पुरुषार्थों में सारभूत ऐसे मोक्षतत्व का प्रतिपादन करने के हेतु से जिसमें पंचास्तिकाय और षड्द्रव्य के स्वरूप के प्रतिपादन द्वारा समस्त वस्तु का स्वभाव दर्शाया गया है, नव पदार्थों के विस्तृत कथन द्वारा जिसमें बंध मोक्ष के संबंधों (स्वामी), बंध - मोक्ष के आयतन (स्थान) और बंध- मोक्ष के विकल्प (भेद) प्रगट किये गये हैं, निश्चय
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
व्यवहाररूप मोक्षमार्ग का जिसमें सम्यक् निरूपण किया गया है और साक्षात् मोक्ष के कारणभूत परमवीतरागपने में जिसका समस्त हृदय स्थित है – ऐसे इस यथार्थ परमेश्वर शास्त्र का, परमार्थ से वीतरागपना ही तात्पर्य है।'
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द्वादशांग का सार एकमात्र वीतरागता
उपरोक्त सभी आधारों से स्पष्ट हो जाता है कि हमें तो मोक्ष अर्थात् सर्वोत्कृष्ट शांति प्राप्त करना है। उसका उपाय तो मात्र एक वीतराग परिणति ही है । इसलिये समस्त द्वादशांग का अभ्यास करो तो उसमें से भी मात्र एक ही मार्ग समझना होगा कि "आत्मा में वीतराग परिणति कैसे उत्पन्न हो ?" इसी उपाय को किसी भी ग्रंथ में से अथवा ज्ञानी पुरुषों के समागम द्वारा अथवा जहाँ से भी जैसे भी प्राप्त हो सके, वहीं से प्राप्त कर लेना चाहिए। यही मात्र एक आवश्यक कर्तव्य है और यही द्वादशांग में सारभूत है।
वीतराग परिणति का स्वरूप
वास्तव में वीतरागता तो आत्मा का स्वभाव है; क्योंकि आत्मा जिस स्वभाव में अनन्तकाल स्थित रह सकता है, वही तो स्वभाव हो सकता है। स्वभाव में कहीं रागादि का अंश भी नहीं रहता, इसलिए आत्मा का स्वरूप तो राग के अभावात्मक रहने से निराकुलता रूपी आनंद स्वभावी परिणमन ही है।
आत्मा का अस्ति की अपेक्षा से वास्तविक रूप ऐसा है । उसी स्वरूप को राग-द्वेषादि विकारी भावों के अभाव की अपेक्षा द्वारा वर्णन करके नास्ति के स्वरूप का ज्ञान कराया जाता है। हमारे को अनादिकाल से राग-द्वेषादिक का ही अनुभव हो रहा है, इसलिये उस ही को जानते हैं, पहिचानते हैं और उसी का वेदन हमें दुःख कर भी