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________________ 20 निमित्तोपादान इसलिये प्रत्येक द्रव्य में उसके अपने-अपने स्वभाव आदि के कारणस्वरूप ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये, जिसके कारण प्रत्येक समय का उत्पाद-व्यय स्वयं होता है। प्रत्येक समय के पृथक्-पृथक् जो वस्तुनिष्ठ कारण हैं, उनकी ही आगम में निश्चय उपादान संज्ञा स्वीकार की गई है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रतिसमय के प्रत्येक कार्य का निश्चय उपादान सुनिश्चित है। इस सुनिश्चित व्यवस्था का अपने इन्द्रिय प्रत्यक्ष, तर्क और अनुभव के आधार पर अपलाप करना एक द्रव्याश्रित कार्य-कारणभाव को ही मटियामेट करना है। मैं तो इसे आगम की अवहेलना करनेरूप सबसे बड़ा अपराध मानता हूँ।" प्रत्येक द्रव्य स्वभाव से ही परिणमनशील है। जब नित्य रहकर भी निरन्तर परिणमित होना प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव है तो फिर उसे अपने परिणमन में परद्रव्य की अपेक्षा ही क्यों हो? क्योंकि स्वभाव तो निरपेक्ष ही होता है। जो पर की अपेक्षा रखता हो, उसे स्वभाव कैसे माना जा सकता है ? । निमित्तों को अंतरंग निमित्त और बहिरंग निमित्त के रूप में भी वर्गीकृत किया जाता है। मुख्य निमित्तों को अंतरंग निमित्त और गौण निमित्तों को बहिरंग निमित्त कहा जाता है। कर्मबन्धन में आत्मा के रागादिभावों को अंतरंग निमित्त और मन-वचन-काय के व्यापार को बहिरंग निमित्त कहा जाता है। इसीप्रकार पदार्थों के ज्ञान में ज्ञानावरणी कर्म के क्षयोपशम को अन्तरंग निमित्त एवं इन्द्रियाँ, प्रकाश आदि को बहिरंग निमित्त कहा जाता है। सम्यग्दर्शन प्राप्ति में दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम, उपशम को अंतरंग निमित्त एवं गुरूपदेश को बहिरंग निमित्त कहा जाता है। निमित्त चाहे अंतरंग हो या बहिरंग, पर हैं तो वे निमित्त ही, कार्य की उत्पत्ति में सभी निमित्तों की स्थिति लगभग एक समान ही है; अत: कोई भी निमित्त कर्ता या साधकतमकरण नहीं हो सकता है। १. जैनतत्त्वमीमांसा, पृष्ठ ७१ २. जैनतत्त्वमीमांसा, पृष्ठ ७१
SR No.009462
Book TitleNimittopadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages57
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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